
जैन धर्म और मोक्ष का विश्लेषण
प्रस्तुत लेख में जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर राजा ऋषभदेव और उनके पौत्र मारीचि (जो बाद में महावीर जैन बने) के जीवन और उनके द्वारा अपनाई गई साधना पद्धति पर एक विश्लेषण दिया गया है। लेख का मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि जैन धर्म की साधना विधि पूर्ण मोक्ष प्रदान नहीं करती है, बल्कि यह केवल अस्थायी सुखों और दुखों के चक्र में फंसाए रखती है।
गीता और ऋषभदेव के वंश का ज्ञान
लेख की शुरुआत में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 4, श्लोक 1 से 3 का संदर्भ दिया गया है, जहाँ गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को बताया कि उन्होंने यह अविनाशी योग (भक्ति मार्ग) सबसे पहले सूर्य को दिया था। सूर्य से यह ज्ञान मनु को, और मनु से उनके पुत्र इक्ष्वाकु को मिला। इस प्रकार, यह ज्ञान परंपरा से राजाओं के बीच चला आ रहा था, लेकिन समय के साथ यह लुप्त हो गया।
ऋषभदेव जी भी इसी इक्ष्वाकु वंश से थे और उन्हें भी यह वेदों वाला ज्ञान परंपरा से प्राप्त हुआ था। वे राज्य करते हुए भी इसी भक्ति मार्ग का पालन करते थे।
ऋषभदेव और ऋषि कविराचार्य का संवाद
एक दिन, पूर्ण परमात्मा ऋषि कविराचार्य के वेश में ऋषभदेव जी से मिले। उन्होंने ऋषभदेव को बताया कि उनकी वर्तमान भक्ति पूर्ण मोक्षदायक नहीं है और उन्हें सृष्टि रचना का सच्चा ज्ञान दिया। कविराचार्य ने बताया कि उनका वास्तविक नाम कविर्देव है, जिसका उल्लेख वेदों में भी है।
इस ज्ञान से प्रभावित होकर ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने कुल गुरुओं और अन्य ऋषियों से इस ज्ञान के बारे में पूछा, लेकिन उन ज्ञानहीन ऋषियों ने उन्हें गुमराह कर दिया और कहा कि कविराचार्य झूठे हैं। ऋषभदेव ने उन ऋषियों की बात मान ली और पूर्ण परमात्मा के ज्ञान को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद, उन्होंने अपना राज्य छोड़कर घोर तपस्या की।
मारीचि का जीवन और कर्मफल
ऋषभदेव ने अपनी तपस्या के बाद अपने पौत्र मारीचि (महावीर जैन का पूर्व जन्म) को दीक्षा दी। मारीचि ने वेदों के अनुसार साधना की और इसके परिणामस्वरूप उन्हें ब्रह्मस्वर्ग में देवता का पद मिला। लेकिन इसके बाद उनका पुनर्जन्म मनुष्य के रूप में हुआ, और फिर वे गधे, कुत्ते, बिल्ली, वृक्षों, वैश्या, शिकारी और अन्य निम्न योनियों में करोड़ों जन्मों तक कष्ट भोगते रहे। उन्हें साठ लाख बार गर्भपात का कष्ट भी भोगना पड़ा। इस प्रकार, उन्हें पुण्य के आधार पर स्वर्ग और पाप के आधार पर नरक तथा विभिन्न योनियों में कष्ट सहना पड़ा।
यह जानकारी “आओ जैन धर्म को जानें” (पृष्ठ 294-296) और “जैन संस्कृति कोश” (प्रथम भाग, पृष्ठ 189-192, 207-209) पुस्तकों में दी गई है।
महावीर जैन और पाखंडी मतों का प्रचलन
मारीचि का जीव, विभिन्न कष्टों को भोगने के बाद, महावीर वर्धमान के रूप में बिहार के वैशाली में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहाँ जन्मा। युवावस्था में उनका विवाह हुआ और उनकी एक पुत्री भी थी। इसके बाद, उन्होंने बिना गुरु धारण किए ही 12 साल तक घोर तपस्या की और केवल ज्ञान प्राप्त करने का दावा किया।
लेख के अनुसार, महावीर जैन ने अपने जीवनकाल में 363 पाखंडी मत चलाए। उनकी मृत्यु 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. में हुई।
निष्कर्ष: शाश्वत सुख या कष्टों का चक्र
लेख में प्रश्न उठाया गया है कि क्या मारीचि जैसे नेक साधक की दुर्गति को ही “शाश्वत सुख रूपी मोक्ष” कहा जा सकता है? जिस साधक ने मर्यादा में रहते हुए साधना की, उसे करोड़ों बार निम्न योनियों में जन्म लेना पड़ा।
गीता के अध्याय 16, श्लोक 23-24 का हवाला देते हुए, लेख में कहा गया है कि जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है, उसे न तो सुख मिलता है, न कोई सिद्धि, और न ही उसकी गति होती है।
अंत में, लेख का निष्कर्ष यह है कि केवल वेदों के आधार पर की गई भक्ति अपूर्ण है। पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए किसी तत्वदर्शी संत से ज्ञान लेना आवश्यक है, जो गीता के अध्याय 15, श्लोक 1 में वर्णित संसार रूपी वृक्ष के रहस्य को जानता हो।
