
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के तृतीय समुल्लास का सच
यह लेख महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के तीसरे समुल्लास में दिए गए एक श्लोक की व्याख्या पर सवाल उठाता है। लेख में दयानन्द द्वारा किए गए अर्थ को गलत बताते हुए उसका सही अर्थ प्रस्तुत किया गया है।
दयानन्द द्वारा दिया गया अर्थ
महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के एक श्लोक का अनुवाद किया है:
“षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥”
दयानन्द के अनुसार, इस श्लोक का अर्थ है:
“आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष तक, यानी एक-एक वेद को बारह-बारह वर्ष में पढ़ने से छत्तीस और आठ मिलकर चवालीस, या अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिलकर छब्बीस, या नौ वर्ष तक, या जब तक विद्या पूरी ग्रहण न कर ले, तब तक ब्रह्मचर्य रखना चाहिए।”
लेखक इस अर्थ को “कल्पित” और “बुद्धिमान लोगों की समझ से परे” बताता है। वह दयानन्द पर आरोप लगाता है कि उन्होंने अपनी कल्पना से यह अर्थ गढ़ा है और इसमें दिए गए 8, 26 और 44 वर्षों का कोई आधार नहीं है।
श्लोक का सही अर्थ
लेख में इस श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है:
“षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥”
- सही अर्थ: एक ब्रह्मचारी को गुरुकुल में छत्तीस वर्ष तक रहकर तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) का पूरा अध्ययन करना चाहिए। यदि यह संभव न हो, तो इसके आधे यानी अठारह वर्ष तक, या इसका भी आधा यानी नौ वर्ष तक, या जब तक वेदों में पूरी निपुणता प्राप्त न हो जाए, तब तक गुरुकुल में रहना चाहिए।
समीक्षा और निष्कर्ष
लेखक दयानन्द द्वारा किए गए अर्थ की कड़ी आलोचना करता है और कहता है कि उनका अर्थ श्लोक से बिलकुल भी मेल नहीं खाता। यह दयानन्द की बुद्धि और ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगाता है। लेखक उन्हें “स्वामी भंगेडानंद” और “स्वामी मूर्खानन्द” जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित करता है।
लेख में कहा गया है कि दयानन्द ने “कम अक्ल” आर्य समाजियों को मूर्ख बनाया है और उनके अनुयायी ऐसे “झूठे भाष्यों” को मानते हैं।
लेख का निष्कर्ष यह है कि दयानन्द के अनुवादों में कल्पना और मिथ्या बातें भरी हुई हैं, जो उनकी अज्ञानता को दर्शाती हैं।
