
महात्मा गांधी के विचार: महर्षि दयानन्द और ‘सत्यार्थ प्रकाश’
इस लेख में महात्मा गांधी के विचारों को उनके अख़बार ‘यंग इंडिया’ के हवाले से प्रस्तुत किया गया है, जहाँ उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनकी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर अपनी राय व्यक्त की है।
दयानन्द के प्रति सम्मान और आलोचना
गांधी जी ने अपने लेख में महर्षि दयानन्द के प्रति गहरा सम्मान व्यक्त किया है और उन्हें हिंदू धर्म के लिए एक महत्वपूर्ण सुधारक माना है। हालांकि, वे यह भी कहते हैं कि दयानन्द ने अपने धर्म को “तंग” (संकीर्ण) बना दिया है।
गांधी जी ने दयानन्द की पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को यरवदा जेल में पढ़ा था। वे कहते हैं कि इतने बड़े सुधारक द्वारा लिखी गई यह सबसे निराशाजनक किताब थी।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अज्ञानता
गांधी जी के अनुसार, दयानन्द ने सत्य पर खड़े होने का दावा तो किया, लेकिन उन्होंने अज्ञानतावश जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म और स्वयं हिंदू धर्म को गलत तरीके से प्रस्तुत किया। वे कहते हैं कि जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा भी ज्ञान है, वह दयानन्द की गलतियों को आसानी से पहचान सकता है।
गांधी जी ने दयानन्द पर आरोप लगाया कि उन्होंने “इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है।”
मूर्तिपूजा और आर्य समाज की प्रगति
गांधी जी का मानना था कि दयानन्द भले ही मूर्तिपूजा के खिलाफ थे, लेकिन वे वेदों के शब्दों की मूर्ति बनाकर एक तरह से मूर्तिपूजा को ही बढ़ावा दे रहे थे। उन्होंने हर ज्ञान को विज्ञान से सिद्ध करने की कोशिश की, जो एक तरह से शब्दों की पूजा थी।
गांधी जी के विचार में, आर्य समाज की प्रगति का कारण ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की शिक्षाएँ नहीं हैं, बल्कि इसके संस्थापक दयानन्द का उच्च आचरण है। वे आर्य समाजियों को जहाँ भी देखते हैं, वहाँ जीवन की सरगर्मी मौजूद होती है।
हालाँकि, वे यह भी कहते हैं कि आर्य समाजियों की तंग और झगड़ालू आदत के कारण वे या तो दूसरे धर्मों के लोगों से लड़ते हैं, और यदि ऐसा न कर सकें तो आपस में ही लड़ते रहते हैं।
