शरण पड़े को सतगरू संभाले, जानकर बालक भोला रे ।

सेवा और दर्शनों का अर्थ

एक बार एक सत्संग कार्यक्रम के बाद, गुरु जी स्टेज पर ही बैठे थे ताकि सभी भक्त आसानी से उनके दर्शन कर सकें। जब सारी संगत दर्शन और सेवा अर्पित कर चुकी, तब भी गुरु जी वहीं बैठे रहे।

किसी भी सेवादार में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उनसे इसका कारण पूछ सके। अंत में, एक बुजुर्ग सेवादार ने हिम्मत करके पूछा, “गुरु जी, आप अभी तक क्यों बैठे हैं? क्या हमसे कोई गलती हो गई है? सभी संगत को दर्शन हो चुके हैं।”

गुरु जी ने जवाब दिया, “अभी एक संगत को दर्शन नहीं हुए हैं। वह भाई उस पीपल के पेड़ के पास बैठा है। जाओ और उनसे कहो कि गुरु जी उन्हें दर्शन और सेवा के लिए बुला रहे हैं।”

सेवादार भाई उस भक्त के पास गए और गुरु जी का संदेश दिया। वह भाई आया, उसने गुरु जी के दर्शन किए और अपनी सेवा अर्पित की। यह देखकर सभी सेवादारों के मन में जिज्ञासा जागी कि आखिर इस भाई की सेवा में ऐसी क्या बात थी कि स्वयं कुल-मालिक को उसका इंतज़ार करना पड़ा।


सच्ची सेवा का रहस्य

बुजुर्ग सेवादार ने गुरु जी से विनती की, “हे सतगुरु, हमें यह ज्ञान देकर धन्य करें कि आप उस भाई का इंतज़ार क्यों कर रहे थे?”

तब गुरु जी ने बताया, “यह भाई सत्संग में आने के लिए एक साल से बस के किराए के लिए पैसे जमा कर रहा था। फिर उसने सोचा कि अगर वह ये पैसे किराए में खर्च कर देगा, तो सेवा में क्या डालेगा? इसलिए उसने बस से आने की बजाय पैदल ही यात्रा करने का निश्चय किया। वह दस दिन पैदल चलकर यहाँ सत्संग में पहुँचा। अब वह थोड़े से पैसे की सेवा समझकर दर्शनों के लिए भी नहीं आ रहा था।”

गुरु जी ने कहा, “तुम ही बताओ, क्या मैं ऐसे सच्चे सत्संगी की सेवा लिए बिना और उसे दर्शन दिए बिना कैसे चला जाता? ऐसी सेवा का भला कोई मोल हो सकता है?”


सार

यह कथा दर्शाती है कि सच्चे भक्त का इंतज़ार स्वयं सतगुरु करते हैं। वह अपने भक्त के सभी जन्म-मरण और रोग-दोषों को काटते हैं। हमें बस अपने सतगुरु पर पूरा भरोसा रखना चाहिए।

जैसा कि संत कबीर कहते हैं:

शरण पड़े को सतगुरु संभाले, जानकर बालक भोला रे ।

कह कबीर तुम चरणचित राखो, ज्यो सुई में डोरा रे ।।

Share your love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *