पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी में सृष्टी रचना का प्रमाण


पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता में सृष्टि रचना का प्रमाण

पवित्र गीता के अध्याय 14, श्लोक 3 से 5 में सृष्टि की रचना का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। इन श्लोकों में, ब्रह्म (काल) यह कहता है कि प्रकृति (दुर्गा) उसकी पत्नी है और वह स्वयं उसका पति है। इन दोनों के संयोग से ही सभी प्राणियों और तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी और तमगुण शिव जी) की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्म स्वयं को सभी प्राणियों का पिता और प्रकृति को उनकी माता कहता है। वह प्रकृति के गर्भ में बीज स्थापित करता है, जिससे सभी प्राणियों का जन्म होता है।

इसके अलावा, अध्याय 15 के श्लोक 1 से 4, और 16, 17 में भी यही प्रमाण मिलता है, जहाँ संसार को एक उल्टे लटके हुए वृक्ष के रूप में वर्णित किया गया है।


संसार रूपी वृक्ष का रहस्य

गीता अध्याय 15, श्लोक 1:

यह संसार एक अविनाशी पीपल के वृक्ष के समान है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं (परम अक्षर ब्रह्म), और शाखाएँ नीचे की ओर हैं (तीन गुण – ब्रह्मा, विष्णु, और शिव)। जो व्यक्ति इस संसार रूपी वृक्ष को उसके सभी भागों सहित जानता है, वही तत्वदर्शी यानी पूर्ण ज्ञानी कहलाता है।

गीता अध्याय 15, श्लोक 2:

इस संसार रूपी वृक्ष की शाखाएँ (ब्रह्मा, विष्णु, और शिव) तीनों गुणों से फैली हुई हैं, और उनकी कोपलें काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे विकारों के रूप में हैं। इन शाखाओं की जड़ें नीचे और ऊपर, यानी स्वर्ग और नर्क सहित चौरासी लाख योनियों में फैली हुई हैं, जो जीवों को कर्मों के बंधन में बाँधती हैं।

गीता अध्याय 15, श्लोक 3:

इस संसार रूपी रचना का न तो कोई आरंभ है और न ही कोई अंत, और इसका वास्तविक स्वरूप यहाँ (इस गीता के ज्ञान में) पूरी तरह से नहीं पाया जाता। इस मजबूत और गहरी जड़ों वाले संसार रूपी वृक्ष को तत्वज्ञान नामक दृढ़ शस्त्र से काटकर, अर्थात इस संसार को क्षणभंगुर जानकर, हमें उस पूर्ण परमात्मा की तलाश करनी चाहिए।

गीता अध्याय 15, श्लोक 4:

जब वह तत्वदर्शी संत मिल जाए, तो उसके बाद हमें उस परमपद यानी सतलोक को भली-भाँति खोजना चाहिए। उस स्थान पर जाने के बाद साधक फिर कभी लौटकर इस संसार में नहीं आता। हमें उसी आदि पुरुष (परम अक्षर ब्रह्म) की शरण में जाना चाहिए, जिससे यह पुरानी सृष्टि उत्पन्न हुई है।


तीन प्रकार के प्रभु का विवरण

गीता अध्याय 15, श्लोक 16:

इस संसार में दो प्रकार के पुरुष (प्रभु) हैं: एक क्षर पुरुष (नाशवान) और दूसरा अक्षर पुरुष (अविनाशी)। इस संसार में सभी प्राणियों के शरीर नाशवान हैं, जबकि जीवात्मा को अविनाशी कहा गया है।

गीता अध्याय 15, श्लोक 17:

लेकिन उत्तम पुरुष तो इन दोनों, क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष, से भी कोई अन्य है, जिसे वास्तव में परमात्मा कहा गया है। वह तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है और वही अविनाशी ईश्वर है।


निष्कर्ष

उपरोक्त श्लोकों से यह प्रमाणित होता है कि:

  • संसार एक उल्टा लटका हुआ वृक्ष है, जिसकी जड़ परम अक्षर ब्रह्म है, तना अक्षर पुरुष (परब्रह्म) है, और एक मोटी डार ब्रह्म (क्षर पुरुष) है। उस डार से ब्रह्मा, विष्णु और शिव रूपी तीन शाखाएँ निकलती हैं, जिनसे आगे संसार के प्राणी रूपी पत्ते निकलते हैं।
  • गीता अध्याय 15, श्लोक 16-17 में यह स्पष्ट है कि क्षर पुरुष (ब्रह्म) और अक्षर पुरुष (परब्रह्म) दोनों नाशवान हैं। उनसे परे एक और उत्तम परमात्मा है, जो वास्तव में अविनाशी है और सभी का पालन-पोषण करता है।
  • इस परम ज्ञान को जानने के लिए किसी तत्वदर्शी संत की शरण में जाना आवश्यक है, जैसा कि गीता अध्याय 4, श्लोक 34 में भी बताया गया है।
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