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पवित्र अथर्ववेद में सृष्टि रचना का प्रमाण
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जानिये कैसे हुई परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्डों की स्थापना ?
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 1
ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्त्ताद् वि सीमतः सुरुचो वेन आवः।
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः।। 1।।
- अनुवाद: (प्रथमम्) प्राचीन यानी सनातन (ब्रह्म) परमात्मा ने (ज) प्रकट होकर (ज्ञानम्) अपनी सूझ-बूझ से (पुरस्त्तात्) शिखर में, यानी सतलोक आदि को (सुरुचः) स्वेच्छा से, बड़े चाव से, स्वप्रकाशित बनाया। (विसिमतः) सीमा रहित यानी विशाल सीमा वाले भिन्न-भिन्न लोकों को उस (वेनः) जुलाहे ने ताने यानी कपड़े की तरह बुनकर (आवः) सुरक्षित किया। (च) और (सः) वह पूर्ण ब्रह्म ही सारी रचना करता है। (अस्य) इसलिए उसी (बुध्न्याः) मूल मालिक ने (योनिम्) मूलस्थान सतलोक की रचना की। (अस्य) इसके (उपमा) सदृश यानी मिलते-जुलते (सतः) अक्षर पुरुष यानी परब्रह्म के लोक कुछ स्थाई (च) और (असतः) क्षर पुरुष के अस्थाई लोक आदि (वि वः) आवास स्थान भिन्न (विष्ठाः) स्थापित किए।
- भावार्थ: पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म (काल) कह रहा है कि सनातन परमेश्वर ने स्वयं अनामय (अनामी) लोक से सतलोक में प्रकट होकर अपनी सूझ-बूझ से कपड़े की तरह रचना की। उन्होंने ऊपर के सतलोक आदि को सीमा रहित, स्वप्रकाशित और अविनाशी बनाया, जबकि नीचे के परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मांडों और ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडों को अस्थाई बनाया।
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 2
इयं पित्रया राष्ट्रîेत्वग्रे प्रथमाय जनुषे भुवनेष्ठाः।
तस्मा एतं सुरुचं ह्नारमह्यं घर्मं श्रीणन्तु प्रथमाय धास्यवे।।2।।
- अनुवाद: (इयम्) इसी (पित्रया) जगतपिता परमेश्वर ने (एतु) इस (अग्रे) सर्वोत्तम (प्रथमाय) सबसे पहली माया परानन्दनी (राष्ट्रि) राजेश्वरी शक्ति यानी पराशक्ति, जिसे आकर्षण शक्ति भी कहते हैं, को (जनुषे) उत्पन्न करके (भुवनेष्ठाः) लोकों की स्थापना की। (तस्मा) उसी परमेश्वर ने (सुरुचम्) बड़े चाव से (एतम्) इस (प्रथमाय) प्रथम उत्पन्न शक्ति यानी पराशक्ति के द्वारा (ह्नारमह्यम्) एक-दूसरे के वियोग को रोकने वाली आकर्षण शक्ति को आदेश दिया कि वह (धर्मम्) अपने कभी समाप्त न होने वाले गुण से (धास्यवे) धारण करके, ताने यानी कपड़े की तरह बुनकर लोकों को रोके रखे।
- भावार्थ: जगतपिता परमेश्वर ने अपनी शब्द शक्ति से राष्ट्री यानी सबसे पहली माया राजेश्वरी उत्पन्न की। उसी पराशक्ति के द्वारा, एक-दूसरे को आकर्षित करने और रोकने वाले कभी न समाप्त होने वाले गुण से, उन्होंने उपरोक्त सभी ब्रह्मांडों को स्थापित किया।
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 3
प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति।
ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ।।3।।
- अनुवाद: (प्र) सबसे पहले (देवानाम्) देवताओं और ब्रह्मांडों की (जज्ञे) उत्पत्ति का ज्ञान (विद्वानस्य) जिज्ञासु भक्त का (यः) जो (बन्धुः) वास्तविक साथी यानी पूर्ण परमात्मा है, वही अपने निजी सेवक को (जनिमा) अपने द्वारा सृजित रचना को (विवक्ति) स्वयं ही ठीक-ठीक विस्तार से बताता है कि (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा ने (मध्यात्) अपने मध्य से यानी शब्द शक्ति से (ब्रह्मः) ब्रह्म-क्षर पुरुष यानी काल को (उज्जभार) उत्पन्न करके (विश्वा) सारे संसार को यानी सभी लोकों को (उच्चैः) ऊपर सतलोक आदि और (निचैः) नीचे परब्रह्म व ब्रह्म के सभी ब्रह्मांडों को (स्वधा) अपनी धारण करने वाली (अभिः) आकर्षण शक्ति से (प्र तस्थौ) अच्छी तरह से स्थिर किया।
- भावार्थ: पूर्ण परमात्मा अपनी रची हुई सृष्टि और सभी आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी सेवक को स्वयं ही सही बताता है। वह बताते हैं कि उन्होंने अपने शरीर के मध्य से अपनी शब्द शक्ति द्वारा ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) की उत्पत्ति की और फिर ऊपर के सभी लोकों (सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक) तथा नीचे के परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मांडों और ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडों को अपनी आकर्षण शक्ति से स्थिर किया।
जैसे पूर्ण परमात्मा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने अपने निजी सेवक श्री धर्मदास जी और आदरणीय गरीबदास जी को अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान स्वयं ही बताया। उपरोक्त वेद मंत्र भी इसी बात का समर्थन करता है।
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 4
सः हि दिवः सः पृथिव्या ऋतस्था मही क्षेमं रोदसी अस्कभायत्।
महान् मही अस्कभायद् वि जातो द्यां सप्र पार्थिवं च रजः।।4।।
- अनुवाद: (सः) उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा ने (हि) निःसंदेह (दिवः) ऊपर के चारों दिव्य लोक, जैसे सतलोक, अलख लोक, अगम लोक और अनामी यानी अकह लोक को (ऋतस्था) सत्य और स्थिर यानी अजर-अमर रूप से स्थापित किया। (स) उन्हीं के समान (पृथिव्या) नीचे के पृथ्वी वाले सभी लोकों, जैसे परब्रह्म के सात शंख और ब्रह्म/काल के इक्कीस ब्रह्मांडों को (मही) पृथ्वी तत्व से (क्षेमम्) सुरक्षा के साथ (अस्कभायत्) ठहराया। (रोदसी) आकाश तत्व और पृथ्वी तत्व दोनों से ऊपर-नीचे के ब्रह्मांडों को (महान्) पूर्ण परमात्मा ने (पार्थिवम्) पृथ्वी वाले (वि) भिन्न-भिन्न (धाम्) लोक (च) और (सदम्) आवास स्थान (मही) पृथ्वी तत्व से (रजः) प्रत्येक ब्रह्मांड में छोटे-छोटे लोकों की (जातः) रचना करके (अस्कभायत्) स्थिर किया।
- भावार्थ: ऊपर के चारों लोक—सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक—को अजर-अमर और अविनाशी रचा गया है। जबकि नीचे के ब्रह्म और परब्रह्म के लोकों को अस्थाई रूप से रचा गया है। इन्हीं के साथ अन्य छोटे-छोटे लोकों को भी उसी परमेश्वर ने रचकर स्थिर किया।
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 5
सः बुध्न्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट्।
अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ द्युमन्तो वि वसन्तु विप्राः।।5।।
- अनुवाद: (सः) उसी (बुध्न्यात्) मूल मालिक से (अभि-अग्रम्) सबसे पहले (आष्ट्र) अष्टंगी माया-दुर्गा यानी प्रकृति देवी (जनुषेः) उत्पन्न हुई, क्योंकि नीचे के परब्रह्म और ब्रह्म के लोकों का पहला स्थान सतलोक है, जिसे तीसरा धाम भी कहते हैं। (तस्य) इस दुर्गा का भी मालिक यही (सम्राट) राजाधिराज, (बृहस्पतिः) सबसे बड़ा पति और जगतगुरु (देवता) परमेश्वर है। (यत्) जिससे (अहः) सबका वियोग हुआ। (अथ) इसके बाद (ज्योतिषः) ज्योति रूप निरंजन यानी काल के (शुक्रम्) वीर्य यानी बीज शक्ति से (जनिष्ट) दुर्गा के गर्भ से उत्पन्न होकर (विप्राः) भक्त आत्माएं (वि) अलग से (द्युमन्तः) मनुष्य लोक और स्वर्ग लोक में ज्योति निरंजन के आदेश से दुर्गा ने कहा, (वसन्तु) निवास करो, यानी वे निवास करने लगीं।
- भावार्थ: पूर्ण परमात्मा ने ऊपर के चारों लोकों में से सतलोक में आष्ट्रा यानी अष्टंगी (प्रकृति देवी/दुर्गा) की उत्पत्ति की। यही राजाधिराज, जगतगुरु, और पूर्ण परमेश्वर (सतपुरुष) हैं, जिनसे सबका वियोग हुआ है। फिर सभी प्राणी ज्योति निरंजन (काल) के बीज से दुर्गा (आष्ट्रा) के गर्भ से उत्पन्न होकर स्वर्ग लोक और पृथ्वी लोक पर निवास करने लगे।
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 6
नूनं तदस्य काव्यो हिनोति महो देवस्य पूव्र्यस्य धाम।
एष जज्ञे बहुभिः साकमित्था पूर्वे अर्धे विषिते ससन् नु।।6।।
- अनुवाद: (नूनम्) निःसंदेह (तत्) वह पूर्ण परमेश्वर यानी तत् ब्रह्म ही (अस्य) इस (काव्यः) भक्त आत्मा को, जो पूर्ण परमेश्वर की भक्ति विधिपूर्वक करता है, वापस (महः) सर्वशक्तिमान (देवस्य) परमेश्वर के (पूव्र्यस्य) पहले के (धाम) लोक यानी सतलोक में (हिनोति) भेजता है। (पूर्वे) पहले वाले (विषिते) विशेष चाहे हुए (एष) इस परमेश्वर को और (जज्ञे) सृष्टि उत्पत्ति के ज्ञान को जानकर (बहुभिः) बहुत आनंद (साकम्) के साथ (अर्धे) आधे (ससन्) सोते हुए (इत्था) विधिपूर्वक इस प्रकार (नु) सच्ची आत्मा से स्तुति करता है।
- भावार्थ: वही पूर्ण परमेश्वर सत्य साधना करने वाले साधक को उसी पहले वाले स्थान (सतलोक) में ले जाता है, जहाँ से वे बिछड़कर आए थे। वहाँ उस वास्तविक सुखदाई प्रभु को पाकर भक्त खुशी से भरकर, मस्ती में स्तुति करता है कि, “हे परमात्मा! असंख्य जन्मों के भटके हुए को वास्तविक ठिकाना मिल गया।”
इसी का प्रमाण पवित्र ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 90, मंत्र 16 में भी है।
आदरणीय गरीबदास जी को इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) स्वयं सतभक्ति देकर सतलोक ले गए थे, तब उन्होंने अपनी अमृतवाणी में आँखों देखा हाल बताया:
“गरीब, अजब नगर में ले गए, हमकुँ सतगुरु आन।
झिलके बिम्ब अगाध गति, सुते चादर तान।।”
काण्ड नं. 4, अनुवाक नं. 1, मंत्र नं. 7
योऽथर्वाणं पित्तरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्।
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्।।7।।
- अनुवाद: (यः) जो (अथर्वाणम्) अचल यानी अविनाशी (पित्तरम्) जगत पिता, (देव बन्धुम्) भक्तों का वास्तविक साथी यानी आत्मा का आधार, (बृहस्पतिम्) जगतगुरु (च) और (नमसा) विनम्र पुजारी यानी विधिपूर्वक साधक को (अव) सुरक्षा के साथ (गच्छात्) सतलोक ले जाने वाले हैं, जो (विश्वेषाम्) सभी ब्रह्मांडों की (जनिता) रचना करने वाले, माता वाले गुणों से भी युक्त हैं, जो (न दभायत्) काल की तरह धोखा न देने वाले (स्वधावान्) गुणों वाले हैं, (यथा) ठीक वैसा ही (सः) वह (त्वम्) आप (कविर्देवः) कविर्देव हैं। यानी भाषा के अनुसार इन्हें कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।
- भावार्थ: इस मंत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उस परमेश्वर का नाम कविर्देव यानी कबीर परमेश्वर है, जिसने सभी रचनाएँ की हैं।वह परमेश्वर अचल यानी वास्तव में अविनाशी (जिसका प्रमाण गीता अध्याय 15 के श्लोक 16-17 में भी है), जगतगुरु, आत्मा का आधार हैं। वह पूर्ण मुक्त होकर सतलोक गए भक्तों को सतलोक ले जाते हैं। वह सभी ब्रह्मांडों के रचनहार हैं और काल (ब्रह्म) की तरह धोखा न देने वाले हैं। यही परमेश्वर सभी ब्रह्मांडों और प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण (जनिता) माता भी कहलाते हैं। वास्तव में यही (पित्तरम्) पिता और (बन्धु) भाई भी हैं। इसीलिए इन्हीं कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की स्तुति की जाती है:
“त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविणंम त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम् देव देव।”
इसी परमेश्वर की महिमा का विस्तृत विवरण पवित्र ऋग्वेद, मंडल नं. 1, सूक्त नं. 24 में है।