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विष्णु का अपने पिता (काल/ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए प्रस्थान व माता का आशीर्वाद पाना
इसके बाद प्रकृति ने विष्णु से कहा, “पुत्र, तू भी अपने पिता का पता लगा ले।” तब विष्णु अपने पिताजी काल (ब्रह्म) का पता करते-करते पाताल लोक में चले गए, जहाँ शेषनाग था। उसने विष्णु को अपनी सीमा में प्रवेश करते देख क्रोधित होकर ज़हर भरा फुंकारा मारा। उसके विष के प्रभाव से विष्णु जी का रंग सांवला हो गया, जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है। तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना चाहिए। तभी ज्योति निरंजन (काल) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए।
तब आकाशवाणी हुई कि, “विष्णु, अब तू अपनी माता जी के पास जा और सत्य-सत्य सारा विवरण बता देना। जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है, इसका प्रतिशोध द्वापर युग में लेना। द्वापर युग में आप (विष्णु) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और कालीदह में कालिन्द्री नामक नाग, शेषनाग का अवतार होगा।”
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
जो जीव देई पीर पुनी काँहु, हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ।।
तब विष्णु जी माता जी के पास आए और सत्य-सत्य कह दिया कि उन्हें पिता के दर्शन नहीं हुए। इस बात से माता (प्रकृति) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि, “पुत्र, तू सत्यवादी है। अब मैं अपनी शक्ति से आपको तेरे पिता से मिलाती हूँ और तेरे मन का संशय खत्म करती हूँ।”
कबीर देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ।
मन स्वरूप कर्ता कह जानों, मन ते दूजा और न मानो।
स्वर्ग पाताल दौर मन केरा, मन अस्थीर मन अहै अनेरा।
निंरकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए।
देख हूँ पलटि सुन्य मह ज्योति, जहाँ पर झिलमिल झालर होती।।
इस प्रकार, माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने विष्णु से कहा कि, “मन ही जग का कर्ता है, यही ज्योति निरंजन है। ध्यान में जो एक हजार ज्योतियाँ नजर आती हैं, वही उसका रूप है। जो शंख, घंटा आदि का बाजा सुना, यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज रहा है।”
तब माता ने कहा कि, “हे पुत्र, तुम सब देवों के सरताज हो और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूँगी। तेरी पूजा सर्व जग में होगी। आपने मुझे सच-सच बताया है।”
काल के इक्कीस ब्रह्मांडों के प्राणियों की विशेष आदत है कि वे अपनी व्यर्थ महिमा बनाते हैं। जैसे दुर्गा जी श्री विष्णु जी से कह रही हैं कि “तेरी पूजा जग में होगी।” मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए। दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखाकर श्री विष्णु जी को बहका दिया। श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयायियों को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है, परमात्मा निराकार है।
महादेव (शिव) की अमर होने की चाह
इसके बाद आदि भवानी रूद्र (महेश जी) के पास गईं और कहा कि, “महेश, तू भी कर ले अपने पिता की खोज। तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए। उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है। अब आप माँगो जो माँगना है।” तब महेश ने कहा कि, “हे जननी! मेरे दोनों बड़े भाइयों को पिता के दर्शन नहीं हुए, फिर प्रयत्न करना व्यर्थ है। कृपा करके मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर (मृत्युंजय) हो जाऊँ।” तब माता ने कहा कि, “यह मैं नहीं कर सकती। हाँ, युक्ति बता सकती हूँ, जिससे तेरी आयु सबसे लंबी बनी रहेगी।” यह विधि योग समाधि है (इसलिए महादेव जी ज्यादातर समाधि में ही रहते हैं)।
इस प्रकार, माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने तीनों पुत्रों को विभाग बाँट दिए:
- भगवान ब्रह्मा जी को काल लोक में चौरासी लाख योनियों के चोले (शरीर) रचने (बनाने) का, अर्थात् रजोगुण प्रभावित करके संतान उत्पत्ति के लिए विवश करके जीव उत्पत्ति कराने का विभाग प्रदान किया।
- भगवान विष्णु जी को इन जीवों के पालन-पोषण (कर्मानुसार) करने, तथा मोह-ममता उत्पन्न करके स्थिति बनाए रखने का विभाग दिया।
- भगवान शिव शंकर (महादेव) को संहार करने का विभाग प्रदान किया।
क्योंकि इनके पिता निरंजन को प्रतिदिन एक लाख मानव शरीरधारी जीव खाने पड़ते हैं।
यहाँ पर मन में एक प्रश्न उत्पन्न होगा कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जी से उत्पत्ति, स्थिति और संहार कैसे होता है? ये तीनों तो अपने-अपने लोक में रहते हैं। जैसे आजकल संचार प्रणाली को चलाने के लिए उपग्रहों को आसमान में छोड़ा जाता है, और वे नीचे पृथ्वी पर संचार प्रणाली को चलाते हैं। ठीक इसी प्रकार, ये तीनों देव जहाँ भी रहते हैं, इनके शरीर से निकलने वाली सूक्ष्म गुण की तरंगें तीनों लोकों में हर प्राणी पर अपने आप प्रभाव बनाए रखती हैं।
उपरोक्त विवरण एक ब्रह्मांड में ब्रह्म (काल) की रचना का है। ऐसे-ऐसे क्षर पुरुष (काल) के इक्कीस ब्रह्मांड हैं।
काल और पूर्ण परमात्मा का भेद
क्षर पुरुष (काल) स्वयं व्यक्त अर्थात् वास्तविक शरीर रूप में सबके सामने नहीं आता। उसी को प्राप्त करने के लिए तीनों देवों (ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शिव जी) ने वेदों में वर्णित विधि अनुसार भरपूर साधना करने पर भी ब्रह्म (काल) के दर्शन नहीं हुए। बाद में ऋषियों ने वेदों को पढ़ा।
पवित्र यजुर्वेद (अ. 1, मंत्र 15) में लिखा है कि ‘अग्नेः तनूर् असि’ – परमेश्वर सशरीर है। पवित्र यजुर्वेद (अध्याय 5, मंत्र 1) में लिखा है कि ‘अग्नेः तनूर् असि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूर् असि’। इस मंत्र में दो बार वेद गवाही दे रहा है कि सर्वव्यापक, सर्वपालनकर्ता सतपुरुष सशरीर है।
पवित्र यजुर्वेद (अध्याय 40, मंत्र 8) में कहा है कि (कविर् मनिषी) जिस परमेश्वर की सभी प्राणियों को चाह है, वह कविर् अर्थात् कबीर है। उसका शरीर बिना नाड़ी (अस्नाविरम्) का है, (शुक्रम्) वीर्य से बनी पाँच तत्वों से बनी भौतिक (अकायम्) काया रहित है। वह सभी का मालिक, सर्वोपरि सतलोक में विराजमान है। उस परमेश्वर का तेजपुंज का (स्वज्र्योति) स्वयं प्रकाशित शरीर है, जो शब्द रूप अर्थात् अविनाशी है। वही कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है जो सभी ब्रह्मांडों की रचना करने वाला (व्यदधाता) है। वह स्वयं प्रकट होने वाला (स्वयम्भूः) है और वास्तव में (यथा तथ्य अर्थान्) अविनाशी (शाश्वत्) है। (गीता अध्याय 15, श्लोक 17 में भी प्रमाण है।)
इसका भावार्थ है कि पूर्ण ब्रह्म के शरीर का नाम कबीर (कविर देव) है। उस परमेश्वर का शरीर नूर तत्व से बना है। परमात्मा का शरीर अति सूक्ष्म है, जो उसी साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है।
इस प्रकार, जीव का भी सूक्ष्म शरीर है, जिसके ऊपर पाँच तत्वों का खोल (कवर) यानी पाँच तत्वों की काया चढ़ी होती है, जो माता-पिता के संयोग से (शुक्रम) वीर्य से बनी है। शरीर त्यागने के बाद भी जीव का सूक्ष्म शरीर साथ रहता है। वह शरीर उसी साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है। इस प्रकार, परमात्मा और जीव की स्थिति को समझें।
वेदों में ॐ नाम के स्मरण का प्रमाण है, जो केवल ब्रह्म साधना है। इस उद्देश्य से ॐ नाम के जाप को पूर्ण ब्रह्म का मानकर, ऋषियों ने भी हजारों वर्ष हठयोग (समाधि लगाकर) करके प्रभु प्राप्ति की चेष्टा की, लेकिन प्रभु दर्शन नहीं हुए। उन्हें केवल सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। उन्हीं सिद्धि रूपी खिलौनों से खेलकर ऋषि भी जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रह गए और अपने अनुभव के शास्त्रों में परमात्मा को निराकार लिख दिया।
काल का वास्तविक स्वरूप
ब्रह्म (काल) ने कसम खाई है कि, “मैं अपने वास्तविक रूप में किसी को दर्शन नहीं दूँगा। मुझे अव्यक्त जाना करेंगे।” (अव्यक्त का भावार्थ है कि कोई आकार में तो है, परंतु व्यक्तिगत रूप से स्थूल रूप में दर्शन नहीं देता। जैसे आकाश में बादल छा जाने पर दिन के समय सूर्य अदृश्य हो जाता है। वह दृश्यमान नहीं है, परंतु वास्तव में बादलों के पार ज्यों का त्यों है, इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं)। (प्रमाण: गीता अध्याय 7, श्लोक 24-25; अध्याय 11, श्लोक 48 और 32)।
पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म (काल), श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके कह रहा है कि, “अर्जुन, मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सभी को खाने के लिए आया हूँ।” (गीता अध्याय 11, श्लोक 32)। “यह मेरा वास्तविक रूप है, इसको तेरे अतिरिक्त न तो कोई पहले देख सका और न कोई आगे देख सकता है,” अर्थात् वेदों में वर्णित यज्ञ-जप-तप तथा ॐ नाम आदि की विधि से मेरे इस वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते। (गीता अध्याय 11, श्लोक 48)। “मैं कृष्ण नहीं हूँ, ये मूर्ख लोग कृष्ण रूप में मुझ अव्यक्त को व्यक्त (मनुष्य रूप) मान रहे हैं, क्योंकि ये मेरे घटिया नियम से अपरिचित हैं कि मैं कभी वास्तविक इस काल रूप में सबके सामने नहीं आता। अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ।” (गीता अध्याय 7, श्लोक 24-25)।
विचार करें: अपने छुपे रहने वाले विधान को स्वयं अश्रेष्ठ (अनुत्तम) क्यों कह रहे हैं? यदि पिता अपनी संतान को भी दर्शन नहीं देता, तो उसमें कोई त्रुटि है, जिस कारण वह छुपा है। काल (ब्रह्म) को शापवश एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार करना पड़ता है और 25 प्रतिशत प्रतिदिन जो ज्यादा उत्पन्न होते हैं, उन्हें ठिकाने लगाने के लिए तथा कर्म भोग का दंड देने के लिए चौरासी लाख योनियों की रचना की हुई है। यदि सबके सामने बैठकर किसी की पुत्री, किसी की पत्नी, किसी के पुत्र, माता-पिता को खाए, तो सभी को ब्रह्म से घृणा हो जाए। और जब भी कभी पूर्ण परमात्मा कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) स्वयं आए या अपना कोई संदेशवाहक (दूत) भेजे, तो सभी प्राणी सत्यभक्ति करके काल के जाल से निकल जाएँ। इसलिए यह धोखा देकर रखता है।
पवित्र गीता अध्याय 7, श्लोक 18, 24, 25 में अपनी साधना से होने वाली मुक्ति (गति) को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है तथा अपने विधान (नियम) को भी (अनुत्तम) अश्रेष्ठ कहा है।
ब्रह्मलोक की संरचना
प्रत्येक ब्रह्मांड में बने ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बनाया है। महास्वर्ग में एक स्थान पर नकली सतलोक, नकली अलख लोक, नकली अगम लोक तथा नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखा देने के लिए प्रकृति (दुर्गा/आदि माया) द्वारा करवा रखी है। कबीर साहेब का एक शब्द है ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ जिसमें वाणी है:
‘काया भेद किया निरवारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा है।
माया अविगत जाल पसारा, सो कारीगर भारा है।
आदि माया किन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिण्ड दिखाई,
अविगत रचना रचि अण्ड माहि वाका प्रतिबिम्ब डारा है।’
एक ब्रह्मांड में अन्य लोकों की भी रचना है, जैसे श्री ब्रह्मा जी का लोक, श्री विष्णु जी का लोक, श्री शिव जी का लोक। जहाँ पर बैठकर तीनों प्रभु नीचे के तीन लोकों (स्वर्गलोक अर्थात् इंद्र का लोक – पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) पर एक-एक विभाग के मालिक बनकर प्रभुता करते हैं तथा अपने पिता काल के खाने के लिए प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्यभार संभालते हैं। तीनों प्रभुओं की भी जन्म व मृत्यु होती है। तब काल इन्हें भी खाता है।
इसी ब्रह्मांड (इसे अंड भी कहते हैं क्योंकि इसकी बनावट अंडाकार है। इसे पिंड भी कहते हैं क्योंकि शरीर (पिंड) में एक ब्रह्मांड की रचना कमलों में टीवी की तरह देखी जाती है) में एक मानसरोवर तथा धर्मराय (न्यायाधीश) का भी लोक है, तथा एक गुप्त स्थान पर पूर्ण परमात्मा अन्य रूप धारण करके रहता है, जैसे प्रत्येक देश का राजदूत भवन होता है। वहाँ पर कोई नहीं जा सकता। वहाँ पर वे आत्माएँ रहती हैं जिनकी सत्यलोक की भक्ति अधूरी रहती है। जब भक्ति युग आता है, तो उस समय परमेश्वर कबीर जी अपना प्रतिनिधि पूर्ण संत सतगुरु भेजते हैं। इन पुण्यात्माओं को पृथ्वी पर उस समय मानव शरीर प्राप्त होता है, और ये शीघ्र ही सत भक्ति पर लग जाते हैं तथा सतगुरु से दीक्षा प्राप्त करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं। उस स्थान पर रहने वाली हंस आत्माओं की निजी भक्ति कमाई खर्च नहीं होती। परमात्मा के भंडार से सभी सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। ब्रह्म (काल) के उपासकों की भक्ति कमाई स्वर्ग-महास्वर्ग में समाप्त हो जाती है, क्योंकि इस काल लोक (ब्रह्म लोक) तथा परब्रह्म लोक में प्राणियों को अपना किया कर्मफल ही मिलता है।
क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने अपने 20 ब्रह्मांडों को चार महाब्रह्मांडों में विभाजित किया है। एक महाब्रह्मांड में पाँच ब्रह्मांडों का समूह बनाया है और चारों ओर से अंडाकार गोलाई (परिधि) में रोका है। इक्कीसवें ब्रह्मांड की रचना एक महाब्रह्मांड जितना स्थान लेकर की है। इक्कीसवें ब्रह्मांड में प्रवेश होते ही तीन रास्ते बनाए हैं। इक्कीसवें ब्रह्मांड में भी बाईं तरफ नकली सतलोक, नकली अलख लोक, नकली अगम लोक, नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखे में रखने के लिए आदि माया (दुर्गा) से करवाई है। दाईं तरफ बारह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म साधकों (भक्तों) को रखता है।
फिर प्रत्येक युग में उन्हें अपने संदेशवाहक (संत सतगुरु) बनाकर पृथ्वी पर भेजता है, जो शास्त्र विधि रहित साधना व ज्ञान बताते हैं। वे स्वयं भी भक्तिहीन हो जाते हैं और अनुयायियों को भी काल के जाल में फँसा जाते हैं। फिर वे गुरु जी तथा अनुयाई दोनों ही नरक में जाते हैं। फिर सामने एक ताला (कुलुफ) लगा रखा है।
वह रास्ता काल (ब्रह्म) के निज लोक में जाता है, जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) अपने वास्तविक मानव सदृश काल रूप में रहता है। इसी स्थान पर एक पत्थर की टुकड़ी तवे के आकार की (चपाती पकाने की लोहे की गोल प्लेट जैसी होती है) स्वतः गर्म रहती है। जिस पर एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को भूनकर उनमें से गंदगी निकाल कर खाता है। उस समय सभी प्राणी बहुत पीड़ा अनुभव करते हैं तथा हाहाकार मच जाती है। फिर कुछ समय बाद वे बेहोश हो जाते हैं। जीव मरता नहीं। फिर धर्मराय के लोक में जाकर कर्माधार से अन्य जन्म प्राप्त करते हैं तथा जन्म-मृत्यु का चक्कर बना रहता है। उपरोक्त सामने लगा ताला ब्रह्म (काल) केवल अपने आहार वाले प्राणियों के लिए कुछ क्षण के लिए खोलता है। पूर्ण परमात्मा के सत्यनाम व सारनाम से यह ताला स्वयं खुल जाता है। ऐसे काल का जाल पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर साहेब) ने स्वयं ही अपने निजी भक्त धर्मदास जी को समझाया।