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स्वर्ग की क्या परिभाषा है?
स्वर्ग को एक होटल (रेस्टोरेंट) की तरह समझें। जैसे कोई धनी व्यक्ति गर्मियों में शिमला या कुल्लू-मनाली जैसे ठंडे स्थानों पर जाता है। वहाँ वह किसी होटल में ठहरता है, जहाँ उसे कमरे और खाने का किराया देना पड़ता है। दो या तीन महीने में वह बीस या तीस हज़ार रुपए खर्च करके वापस अपने कर्म क्षेत्र में आता है। फिर वह दस महीने मज़दूरी-मेहनत करता है ताकि फिर से दो महीने के सुख के लिए अपनी ही कमाई खर्च कर सके। यदि किसी वर्ष कमाई अच्छी नहीं हुई, तो वह उन दो महीने के सुख को भी तरसता है।
ठीक इसी प्रकार स्वर्ग को समझें। इस पृथ्वी लोक पर साधना करके कुछ समय के लिए स्वर्ग रूपी होटल में चला जाता है। फिर अपनी पुण्य कमाई खर्च करके, वापस नरक और चौरासी लाख योनियों के शरीर में पाप कर्मों के आधार पर कष्ट भोगना पड़ता है।
जब तक तत्वदर्शी संत नहीं मिलेगा, तब तक उपरोक्त जन्म-मृत्यु और स्वर्ग-नरक व चौरासी लाख योनियों का कष्ट बना ही रहेगा। क्योंकि केवल पूर्ण परमात्मा का सतनाम और सारनाम ही पापों का नाश करता है। अन्य प्रभुओं की पूजा से पाप नष्ट नहीं होते। सभी कर्मों का ज्यों का त्यों (यथावत्) फल ही मिलता है। इसीलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्मलोक (महास्वर्ग) तक सभी लोक नाशवान हैं। जब स्वर्ग और महास्वर्ग ही नहीं रहेंगे, तब साधक का कहाँ ठिकाना होगा? कृपया इस पर विचार करें।