एक शंका के कारण जिनको मिली 260 वर्ष की आयु – कहानी उन्ही अर्जुन-सर्जुन की


एक शंका के कारण जिनको मिली 260 वर्ष की आयु – कहानी उन्हीं अर्जुन-सर्जुन की

सतपुरुष सतगुरु कबीर साहिब जी के 64 लाख शिष्य थे, जिनमें से अर्जुन-सुर्जन एक ऐसे नाम हैं जिनका बाबा गरीबदास जी के पूर्व जन्म (कबीर साहिब) में बहुत महत्व है। यह एक विलक्षण बात है कि वे दो व्यक्ति जो सतगुरु कबीर साहिब जी के जीवन से लेकर बाबा गरीबदास के जीवन तक उपस्थित थे, जबकि इन दोनों के जीवन काल में 260 वर्ष का अंतर है।

सतगुरु कबीर साहिब जी ने अपने शिष्यों को इकट्ठा करके कहा कि हम काशी के बाज़ारों में एक जुलूस निकाल रहे हैं। उसी समय महाराज कबीर साहिब जी ने काशी में अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए एक स्वांग रचा। वे शीशी में गंगाजल भरकर और एक वेश्या को साथ लेकर बाज़ार में निकल पड़े (यह घटना आदि ग्रंथ में विस्तार से लिखी है)। बाकी सभी लेखकों ने इसे साहिब कबीर जी तक ही सीमित रखा है। केवल आचार्य गरीबदासी सम्प्रदाय में सतगुरु के दोबारा जन्म लेने के बारे में पता चलता है। गरीबदासी सम्प्रदाय के अनुसार, जब सतगुरु कबीर साहिब ने यह स्वांग रचा, तो वे अपने साथ रविदास जी को भी ले गए। उस समय कबीर साहिब के 64 लाख शिष्य थे, जिनमें अर्जुन-सुर्जन भी शामिल थे।

जब हाथी पर बैठे कबीर जी और भक्त रविदास जी के बीच में वेश्या को बिठाया गया, तो कबीर जी ने अपने हाथ में गंगाजल से भरी बोतल पकड़ रखी थी, जिसमें लाल रंग मिला दिया था ताकि वह शराब जैसी लगे। वे शराबियों की तरह बोलने भी लगे। जब यह दृश्य उनके शिष्यों ने देखा, तो वे सब हैरान रह गए और उनके मन में गलत ख्याल और नफरत आ गई।

इस दृष्टांत को जगतगुरु बाबा गरीबदास जी ने अपनी अमृत वाणी में इस तरह कहा है:

तारी बाजी पूरी में, भरष्ट जुल्ह्दी नीच।

गरीबदास गणिका सजी, दहूं संत के बीच।

गावत बैन विलास-पद, गंगा जल पीवतं।

गरीबदास विहल भये मतवाले घुमंत।

भड़ुवा भड़ुवा सब कहें, कोई न जानें खोज।

गरीबदास कबीर कर्म, बाटंत सिर का बोझ।

लोग तरह-तरह से पागल, मूर्ख और अपशब्द कहने लगे। कोई भी उनके इस कृत्य का रहस्य नहीं जान सका। सारी काशी नगरी उनकी निंदा करने लगी। इसी तरह कबीर साहिब जी के शिष्य भी कबीर जी से नफरत करने लगे और दूर चले गए।

केवल दो ही शिष्य सफल हुए और सतगुरु जी के पीछे-पीछे पहुँचे। सतगुरु कबीर साहिब जी घूमते-घूमते चांडाली चौक में पहुँचकर वहाँ बैठ गए। इस पर अर्जुन-सुर्जन को अच्छा नहीं लगा और वे सतगुरु जी से कहने लगे, “महाराज, इस जगह पर मत बैठो, क्योंकि यह चंडाल की जगह है और यहाँ आप बैठे शोभायमान नहीं लगते।”

इस सचित्रण को बाबा गरीबदास जी ने यूँ कहा है:

गरीब चंडाली के चौक में, सतगुरु बैठे जाय।

चौसठ लाख गारत गये, दो रहे सतगुरु पाय।

गरीब सुरजन अर्जुन ठाहरे, सतगुरु की प्रतीत।

सतगुरु ईहा न बैठिये यौह द्वारा है नीच।

उस सतगुरु की लीला के आगे शिष्य की क्या हिम्मत कि वह उसे समझ सके! सभी की तो क्या, वे दोनों भी अपनी जगह कायम नहीं रह सके। वे भी सतगुरु कबीर साहिब जी को शिक्षा देने लगे। वे यह नहीं जानते थे कि सतगुरु कबीर साहिब जी परमात्मस्वरूप हैं। उनके लिए ऊँच-नीच से क्या? आत्मा तो इस ऊँच-नीच से ऊपर है और उसके लिए कुछ भी बुरा नहीं है। जगतगुरु आचार्य गरीबदास जी ने अपनी वाणी में इस तरह कहा है:

गरीब ऊँच नीच में हम रहें, हाड चाम की देह।

सुरजन अर्जुन समझियों, रखियों शब्द सनेह।

सतगुरु कबीर साहिब जी ने फरमाया कि यह तो हाड़-चाम की देह है, पर हम तो परमात्मस्वरूप हैं। उसके लिए ऊँच-नीच नहीं होती, उसका तो भगवान से मिलाप होता है। यदि आपने भी भगवान से मिलाप करना है, तो शब्द से प्रेम करो, इससे तुम सब कुछ प्राप्त कर सकते हो।

तब अर्जुन-सुर्जन ने सतगुरु देव से विनती की कि महाराज जी, जो आत्माएँ आपसे बिछड़ गई हैं, उन्हें मिलाप करने का कौन सा समय और जगह होगी? तब सतगुरु जी ने कहा, हम बांगर देश में जाकर अपने सेवकों का कल्याण करेंगे। जगतगुरु गरीबदास जी महाराज जी अपनी वाणी में वर्णन करते हैं:

बांगर देश क्लेश निरंतर, हंस गये बहां निश्चे ही जानी।

दिल्ली को मंडल मंगल दायक, रूपा धरै श्री धाम छुडानी।

मुक्ति का द्वार खुलै बहां जाकर, हँस हमारे जहां लाड लड़ानी।

दास गरीब तबीब अनुपम, भक्त और मुक्त की देन निशानी।

दास गरीब जो रूप धरै हम, संतन काज ना लाज करैं है।

हँस उधारन कारण के हित, देश विलायत आप फिरै है।

आज वही परीक्षा चल रही है, फिर से। चाहे कोई सा भी पहलू हो, जब तक हमारा स्वभाव सतलोक में रह रही हंस आत्माओं जैसा नहीं बनेगा, तो हम कैसे सतलोक के अधिकारी हो सकते हैं? सतनाम और सारनाम तो मालिक ने पता नहीं कितनों को दिया, पर पार नहीं किया, जब तक कि सतलोक के हंस न बनें। हमको हर पहलू पर विचार करके मुक्ति पानी ही है अब। काल ने हमको और मालिक को बहुत दुखी कर दिया है।

मालिक कहते हैं कि:

गरीब, मैं रोवत हूँ सृष्टी को सृष्टी रोवै मोहै।

गरीबदास इस वियोग को समझ ना सकता कोय।।

जो इस वियोग को समझ गया, उसे मालिक ने सतलोक भेज दिया। हम नहीं जा पा रहे हैं क्योंकि हमारा स्वभाव हंस जैसा नहीं बना है।

अब हमें चलना है भगतो अपने घर। हमारे पिताजी बहुत दुखी हैं। भक्ति के साथ प्रचार, सामाजिक कुरीतियाँ और परमार्थ भी करना है ताकि हमारे भाई-बहन भी जागें और अपने घर चलें।

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