जानिये क्या है मंगलाचरण का भावार्थ ?


मंगलाचरण का अर्थ

यह मंगलाचरण संत गरीबदास जी महाराज द्वारा रचित है, जिसमें वह परमात्मा, संतों और गुरुओं को नमन करते हुए उनकी महिमा का गुणगान करते हैं।


श्लोक 1

गरीब, नमो नमो सत् पुरुष कुं, नमस्कार गुरु किन्ही।

सुरवर मुनिजन साधवा, संतो सर्वस दीन्ही।।

अर्थ:

बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज सतपुरुष और परमात्मा जी को बारंबार नमस्कार करते हैं। वे देवता, मुनि, साधु और संतों पर अपना सब कुछ न्योछावर करते हैं।


श्लोक 2

सत् गुरु साहिब संत, सब दंडवत प्रणाम।

आगे पीछे मध्य हुए, तिन कुं जा कुर्बान।।

अर्थ:

हम सच्चे परमपिता परमात्मा और सभी संतों को दंडवत प्रणाम करते हैं। जो भी संत और महापुरुष पहले होकर चले गए हैं, जो भविष्य में होने वाले हैं, और जो इस समय मौजूद हैं, उन पर हम कुर्बान हो जाते हैं।


श्लोक 3

नराकार निर्विषम, काल जाल भय भजन्म।

निर्लेपम निज निर्गुण, अकाल अनुप बेसुन्न धुन्न।।

अर्थ:

वह परमपिता आकार में हैं, यानी सभी जगह मौजूद हैं। वह सभी विषय-विकारों से रहित हैं। वह काल द्वारा बनाए गए जन्म-मृत्यु के जाल के भय का नाश करने वाले हैं। वह परमपिता निर्लेप हैं, यानी किसी भी सांसारिक वस्तु में आसक्त नहीं हैं। वह हमेशा विद्यमान रहते हैं और उनका न आदि है, न अंत। वह (सत, रज, तम) तीनों गुणों से रहित हैं। वह हमारी कल्पना से परे हैं और उनकी कोई उपमा नहीं की जा सकती। वह अभाव रहित चैतन्य और शब्द स्वरूप पूर्ण ब्रह्म हैं।


श्लोक 4

सोहम् सुरति समापतम, सकल समाना निरतिले।

उजल हिरम्बर हरदम, बे परवाह अथाह है वार पार नही मध्यंत।।

अर्थ:

सोहम् (शुद्ध अहम) का ध्यान करते हुए उस सर्वव्यापी पूर्ण ब्रह्म में निरंतर तल्लीन हो जाओ। वह उज्ज्वल हीरे की तरह हरदम चमकते हुए सोने के समान शुद्ध प्रकाश स्वरूप हैं और प्रत्येक जीव की श्वास में बसे हुए हैं। वह प्रवाह से रहित और अचल हैं, जिनका कोई अंत नहीं है। वह ऐसे अथाह समुद्र की तरह हैं, जिसके इस पार, उस पार या बीच की गहराई को मापा नहीं जा सकता।


श्लोक 5

गरीब, जो सुमरित सिद्ध होइ, गण नायक गलताना।

करो अनुग्रह सोई, पारस पद परवाना।।

अर्थ:

बंदी छोड़ गरीबदास जी कहते हैं कि जिस नाम का स्मरण करने मात्र से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं, ऐसे गणों के नायक (गणेशजी), जो सभी में लीन हैं, वह मुझ पर कृपा करें।


श्लोक 6

आदि गणेश मनाऊँ, गण नायक देवा।

चरण कमल ल्यौ लाऊ, आदि अंत करूँ सेवा।।

अर्थ:

मैं आदि गणेश (मूल स्वरूप ब्रह्म) को मनाता हूँ, जो गणों के नायक हैं और सभी देवों के देव हैं। मैं उनके चरण कमलों में ध्यान लगाते हुए आदि से अंत तक उनकी सेवा करता रहूँगा।


श्लोक 7

परम शक्ति संगीतम्, रिद्धि सिद्धि दाता सोई।

अवगत गुनाह अतितम्, सत् पुरुष निर्मोही।।

अर्थ:

उस परमपिता परमेश्वर की शक्ति (महामाया) हमेशा उनके साथ रहती है। वही रिद्धि और सिद्धि को देने वाले हैं। उनकी गति कोई नहीं जान सकता। वह तीनों गुणों से परे हैं और वह सतपुरुष मोह से रहित हैं।


श्लोक 8

जगदम्बा जगदीशम्, मंगल रूप मुरारी।

तन मन अरपु शिशम्, भक्ति मुक्ति भंडारी।।

अर्थ:

वह जो संपूर्ण जगत की माता (आदि माया भगवती शक्ति) हैं और जगत के स्वामी हैं, उस मंगल (शुभ) रूप भगवान मुरारी को मैं अपना तन, मन और शीश अर्पण करता हूँ। वह परमेश्वर भक्ति द्वारा मुक्ति देने वाले भंडारी हैं।


श्लोक 9

सुर नर मुनिजन ध्यावे, ब्रह्म विष्णु महेशा।

शेष सहंस मुख गावे, पूजे आदि गणेशा।।

अर्थ:

उसी परमपिता परमेश्वर का सभी देवता, मनुष्य (मानव), मुनिजन तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी ध्यान करते हैं। शेषनाग जी अपने एक हजार मुखों से गाकर आदि गणेश जी (मूल स्वरूप पूर्ण ब्रह्म) की पूजा करते हैं।


श्लोक 10

इन्द्र कुबेर सरीखा, वरुण धर्मराय ध्यावे।

सुमरत जीवन जिका, मन इच्छा फल पावे।।

अर्थ:

देवताओं के राजा इंद्र और धन के स्वामी कुबेर के साथ-साथ जल के देवता वरुण और धर्मराय भी उसी का ध्यान करते हैं। उस समर्थ का स्मरण करके सभी जीव अपनी मन-चाही इच्छाओं का फल प्राप्त करते हैं।


श्लोक 11

तेतीस कोट आधारा, ध्यावे सहस अठासी।

उतरे भव जल पारा, कटी है यम की फाँसी।।

अर्थ:

वह परमपिता परमेश्वर (बंदी छोड़ सतगुरु) तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के आधार हैं। अठासी हजार शौनकादि ऋषि-मुनि उनका ध्यान करते हैं। उनका ध्यान करने से सभी यमराज की फाँसी को काटकर संसार रूपी भवसागर से पार उतर जाते हैं।


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