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संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित अनमोल गीता सार
आत्मा युगों से परमेश्वर की खोज में लगी हुई है, ठीक वैसे ही जैसे एक प्यासे को पानी की चाह होती है। जीवात्मा परमात्मा से बिछड़कर महाकष्ट झेल रही है। जो सुख पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) के सतलोक (ऋतधाम) में था, वह सुख यहाँ काल (ब्रह्म) प्रभु के लोक में नहीं है।
चाहे कोई करोड़पति हो, पृथ्वीपति (संपूर्ण पृथ्वी का राजा) हो, सुरपति (स्वर्ग का राजा इंद्र) हो, या श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु और श्री शिव जैसे त्रिलोकपति हों—सभी जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसे हैं और किए गए कर्मों का फल अवश्य भोगते हैं। इसका प्रमाण गीता के अध्याय 2 श्लोक 12 और अध्याय 4 श्लोक 5 में मिलता है।
पवित्र श्रीमद्भगवद् गीता के ज्ञान दाता प्रभु (काल भगवान) ने भी अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 और अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि:
“अर्जुन, सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शांति और सतलोक (शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा। उस परमेश्वर के तत्व ज्ञान और भक्ति मार्ग को मैं (गीता ज्ञान दाता) नहीं जानता।”
उन्होंने आगे अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि:
“उस तत्व ज्ञान को तत्वदर्शी संतों के पास जाकर, उन्हें दण्डवत प्रणाम कर और विनम्र भाव से प्रश्न पूछ, तब वे तत्वदृष्टा संत आपको परमेश्वर का तत्व ज्ञान बताएंगे। फिर उनके बताए भक्ति मार्ग पर सर्व भाव से लग जा।”
तत्वदर्शी संत की पहचान
गीता के अध्याय 15 श्लोक 1 में तत्वदर्शी संत की पहचान बताई गई है। इसमें कहा गया है कि यह संसार उल्टे लटके हुए वृक्ष की तरह है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर हैं। जो इस संसार रूपी वृक्ष के बारे में जानता है, वही तत्वदर्शी संत है।
अध्याय 15 श्लोक 2 से 4 में कहा गया है कि:
“उस संसार रूपी वृक्ष की तीनों गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) रूपी शाखाएं हैं, जो तीनों लोकों (स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी) में ऊपर और नीचे फैली हुई हैं। मैं इस गीता के ज्ञान में इस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष यानी सृष्टि रचना के बारे में नहीं बता पाऊंगा, क्योंकि मैं जो ज्ञान तुम्हें दे रहा हूँ, वह पूर्ण नहीं है।”
अध्याय 4 श्लोक 34 में संकेत किया गया है कि पूर्ण ज्ञान (तत्व ज्ञान) के लिए तत्वदर्शी संत के पास जाना चाहिए, क्योंकि वे ही बताएंगे।
अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा गया है कि तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के बाद उस परमपद परमेश्वर (जिसका उल्लेख गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है) की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के बाद साधक वापस लौटकर नहीं आता, यानी वह पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। यह वह पूर्ण परमात्मा है जिससे इस उल्टे संसार रूपी वृक्ष का विस्तार हुआ है।
इसका भावार्थ यह है कि जिस परमेश्वर ने सभी ब्रह्मांडों की रचना की है, मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। उसकी साधना करने से ही अनादि मोक्ष (पूर्ण मोक्ष) मिलता है। तत्वदर्शी संत वही है जो इस उल्टे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष की जड़, तना और शाखाओं (तीनों गुणों) की पूरी जानकारी देता है।
“अपने द्वारा रची सृष्टि का पूर्ण ज्ञान (तत्वज्ञान) स्वयं ही पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने तत्वदर्शी संत की भूमिका करके (कविर्गीर्भिः) कबीर वाणी द्वारा बताया है।”
(प्रमाण: ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20, ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 90 मंत्र 1 से 5, और अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्र 1 से 7)
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, ज्योति निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
तीन प्रभुओं का वर्णन
पवित्र गीता जी में भी तीन प्रभुओं का वर्णन है:
- क्षर पुरुष (ब्रह्म)
- अक्षर पुरुष (परब्रह्म)
- परम अक्षर पुरुष (पूर्णब्रह्म)
इसका प्रमाण गीता के अध्याय 15 श्लोक 16-17 और अध्याय 8 श्लोक 1 के उत्तर (श्लोक 3) में मिलता है, जहाँ परम अक्षर ब्रह्म का उल्लेख है। एक और प्रमाण गीता के अध्याय 7 श्लोक 25 में है, जहाँ ज्ञान दाता काल (ब्रह्म) ने स्वयं को अव्यक्त कहा है, जो पहला अव्यक्त प्रभु है।
अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा गया है कि यह संसार दिन में अव्यक्त (परब्रह्म) से उत्पन्न होता है और रात में उसी में विलीन हो जाता है। यह दूसरा अव्यक्त है।
अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा गया है कि उस अव्यक्त से भी दूसरा जो अव्यक्त (पूर्णब्रह्म) है, वह परम दिव्य पुरुष है जो सभी प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यही प्रमाण गीता के अध्याय 2 श्लोक 17 में भी है कि उस नाश रहित परमात्मा को जानो, जिसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। जबकि गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने स्वयं अध्याय 4 मंत्र 5 और अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि वह जन्म-मृत्यु में है, यानी नाशवान है।
इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ परम अक्षर पुरुष (पूर्ण ब्रह्म कविर्देव) है, जिसे तीसरा अव्यक्त प्रभु कहा गया है। वृक्ष की जड़ से ही पूरे पेड़ को पोषण मिलता है। इसीलिए गीता के अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा गया है कि वास्तव में परमात्मा तो क्षर पुरुष (ब्रह्म) और अक्षर पुरुष (परब्रह्म) से भी अलग है। वह जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वही वास्तव में अविनाशी है।
- क्षर का अर्थ है नाशवान। ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता) ने स्वयं कहा है कि “अर्जुन, तू और मैं तो जन्म-मृत्यु में हैं।” (प्रमाण: गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5)
- अक्षर का अर्थ है अविनाशी। यहाँ परब्रह्म को अविनाशी कहा गया है, लेकिन यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है।
इसे एक उदाहरण से समझें:
- एक मिट्टी का प्याला, जो गिरते ही टूट जाता है, उसे ब्रह्म (काल) की स्थिति समझें।
- एक स्टील का प्याला, जो मिट्टी के प्याले से ज्यादा टिकाऊ लगता है, लेकिन उसे भी जंग लगता है और वह नष्ट हो जाता है, भले ही इसमें समय लगे। यह परब्रह्म की स्थिति है।
- एक सोने का प्याला, जो वास्तव में अविनाशी है और जिसका नाश नहीं होता, वही पूर्ण ब्रह्म है।
सात रजगुण ब्रह्मा की मृत्यु के बाद एक सतगुण विष्णु की मृत्यु होती है, और सात सतगुण विष्णु की मृत्यु के बाद एक तमगुण शिव की मृत्यु होती है। जब तमगुण शिव की 70,000 बार मृत्यु हो जाती है, तब एक क्षर पुरुष (ब्रह्म) की मृत्यु होती है। यह परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक युग होता है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन और उतनी ही रात होती है। 30 दिन-रात का एक महीना, 12 महीनों का एक वर्ष और 100 वर्ष की परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की आयु होती है। तब यह परब्रह्म और सभी ब्रह्मांड, जो सतलोक से नीचे हैं, नष्ट हो जाते हैं। कुछ समय बाद, पूर्ण ब्रह्म यानी परम अक्षर पुरुष नीचे के सभी ब्रह्मांडों की रचना फिर से करते हैं।
इस तरह यह तत्व ज्ञान समझना है। लेकिन परम अक्षर पुरुष (सतपुरुष) और उनका सतलोक (ऋतधाम), साथ ही ऊपर के अलखलोक, अगम लोक और अनामी लोक कभी नष्ट नहीं होते।
इसलिए गीता के अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा गया है कि वास्तव में उत्तम प्रभु यानी पुरुषोत्तम, ब्रह्म (क्षर पुरुष) और परब्रह्म (अक्षर पुरुष) से अलग हैं, जो पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) हैं। वही वास्तव में अविनाशी हैं और सभी का धारण-पोषण करने वाले हैं। वही संसार रूपी वृक्ष की जड़ रूपी पूर्ण परमात्मा हैं।
वृक्ष का वह हिस्सा जो जमीन से तुरंत बाहर आता है, उसे तना (अक्षर पुरुष/परब्रह्म) मानें। तने को भी पोषण जड़ (परम अक्षर पुरुष) से ही मिलता है। फिर तने से कई डारें निकलती हैं, जिनमें से एक डार ब्रह्म (क्षर पुरुष) है। इसे भी पोषण जड़ (परम अक्षर पुरुष) से ही मिलता है। उस डार (ब्रह्म) की तीन गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) रूपी शाखाएं हैं। इन्हें भी पोषण जड़ से ही प्राप्त होता है। इन तीनों शाखाओं से पात के रूप में अन्य प्राणी आश्रित हैं, जिन्हें भी वास्तव में पोषण जड़ (पूर्ण ब्रह्म) से ही मिलता है। इसलिए सभी के पूज्य केवल पूर्ण परमात्मा ही सिद्ध हुए।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि पत्तों तक आहार पहुँचाने में तना, डार और शाखाओं का कोई योगदान नहीं है। इसलिए सभी आदरणीय हैं, लेकिन पूजा केवल जड़ की ही होती है। आदर और पूजा में अंतर होता है। जैसे एक पतिव्रता स्त्री सबका आदर करती है, लेकिन पूजा केवल अपने पति की ही करती है।