सत्यार्थ प्रकाश सप्तम संमुल्लास – दयानन्द की पोल-खोल (भाग-08)


दयानंद का महाअज्ञान: सत्यार्थ प्रकाश का सच

यह लेख महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के सातवें समुल्लास में दिए गए कुछ श्लोकों की व्याख्या पर गंभीर सवाल उठाता है। लेखक दयानंद पर अज्ञानता और धोखेबाजी का आरोप लगाते हुए उनके भाष्यों की कड़ी आलोचना करता है और उनका सही अर्थ प्रस्तुत करता है।


1. अंगिरा और अथर्ववेद को जोड़ने का षड्यंत्र

लेख में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के पेज 169 पर दिए गए एक श्लोक का जिक्र है:

अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेद: सुर्यात्सामवेद: ॥

दयानंद ने इसका अर्थ करते हुए लिखा है कि सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों की आत्माओं में एक-एक वेद का प्रकाश किया।

  • लेखक का सवाल: लेखक इस पर सवाल उठाता है कि श्लोक में केवल तीन वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) और तीन देवताओं (अग्नि, वायु, सूर्य) का उल्लेख है, तो दयानंद ने इसमें अंगिरा और अथर्ववेद को कहाँ से जोड़ा? लेखक इसे दयानंद की मूर्खता और धूर्तता बताता है।

2. ब्रह्मा को वेद देने का विरोधाभास

लेख में दयानंद द्वारा मनुस्मृति के एक श्लोक (मनु 1/23) की व्याख्या पर भी सवाल उठाया गया है:

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।

दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजु: समलक्षणम्॥

दयानंद ने इसका भावार्थ लिखा है कि परमात्मा ने अग्नि आदि चार ऋषियों के माध्यम से ब्रह्मा को चारों वेद दिए, और ब्रह्मा ने इन ऋषियों से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

  • लेखक का खंडन: लेखक इसे दयानंद का षड्यंत्र बताता है। वह मनुस्मृति के ही अन्य श्लोकों से यह सिद्ध करता है कि ब्रह्मा की उत्पत्ति स्वयं सबसे पहले हुई थी, और वही सर्वलोक के पितामह हैं।
    • मनुस्मृति 1/11: “उस तेजस्वी अंडे से ही सर्वलोक पितामह ब्रह्मा जी प्रकट हुए।”
    • मनुस्मृति 1/12: “ब्रह्म की उत्पत्ति नार से हुई, जिससे ब्रह्मा जी का नाम ‘नारायण’ भी पड़ा।”

इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि आदि सृष्टि में ब्रह्मा की उत्पत्ति सर्वप्रथम हुई थी, तो उन्हें किसी अन्य चार ऋषियों से वेद ज्ञान लेने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

3. ईश्वर के पक्षपात और पवित्र आत्माओं पर सवाल

जब प्रश्नकर्ता पूछता है कि ईश्वर ने केवल चार ऋषियों में ही वेद का प्रकाश क्यों किया, तो दयानंद उत्तर देते हैं:

“वो ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे… इसलिए पवित्र विद्या का उन्हीं में प्रकाश किया।”

  • लेखक का तर्क: लेखक इस जवाब को बेवकूफी भरा बताता है। वह पूछता है कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय कोई आत्मा सबसे पवित्र कैसे हो सकती है? उस समय तो काम, क्रोध, लोभ जैसे विकार थे ही नहीं। यह कथन ईश्वर को पक्षपाती साबित करता है।

4. संस्कृत और भाषाओं पर बेतुका जवाब

जब प्रश्नकर्ता पूछता है कि वेदों का प्रकाश किसी देश की भाषा में क्यों नहीं, बल्कि संस्कृत में ही क्यों किया गया, तो दयानंद जवाब देते हैं:

“अगर ईश्वर किसी देश की भाषा में प्रकाश करता तो पक्षपाती होता, क्योंकि उस देश के लोगों को सुगमता होती और विदेशियों को कठिनाई। इसलिए संस्कृत में ही प्रकाश किया, जो किसी देश की भाषा नहीं, बल्कि सभी भाषाओं का कारण है।”

  • लेखक का कटाक्ष: लेखक इस जवाब को हास्यास्पद और बेतुका बताता है। वह पूछता है कि सृष्टि के आदि में कितने देश और भाषाएँ थीं? क्या संस्कृत कभी बोली नहीं जाती थी? दयानंद का यह जवाब लोगों को भ्रमित करने का प्रयास है।

निष्कर्ष

लेख यह निष्कर्ष निकालता है कि दयानंद ने मनुस्मृति के श्लोकों का मनमाना अर्थ निकालकर लोगों को भ्रमित किया है। उनका भाष्य न तो व्याकरण की दृष्टि से सही है और न ही तार्किक है। लेखक दयानंद को “धूर्त” और “महामूर्ख” कहकर संबोधित करता है।

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