महामुर्ख दयानन्द और ‘सत्यानाश प्रकाश’ की पोल खोल – भाग 03


नियोग (भाग-1)

यह लेख महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास में वर्णित ‘नियोग’ प्रथा पर आधारित है। यह पुनर्विवाह के विकल्प के रूप में प्रस्तावित एक प्रथा है, जिसका उद्देश्य कुल की परंपरा को जारी रखना है।

पुनर्विवाह का निषेध

‘सत्यार्थ प्रकाश’ के अनुसार, ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों जैसे द्विजों को कभी भी पुनर्विवाह नहीं करना चाहिए। स्वामी दयानंद ने इसके कई कारण बताए हैं:

  1. अस्थिरता: पुनर्विवाह की अनुमति से पति और पत्नी जब चाहें एक-दूसरे को छोड़कर दूसरा विवाह कर सकते हैं।
  2. पारिवारिक झगड़े: पति या पत्नी की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह करने पर, उनके सामान को लेकर परिवार में झगड़े हो सकते हैं।
  3. पतिव्रत/स्त्रीव्रत धर्म का नाश: पुनर्विवाह करने से पतिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है।
  4. अधर्म: किसी विधवा स्त्री का किसी कुंवारे पुरुष से और विधुर पुरुष का किसी कुंवारी कन्या से विवाह करना अन्याय और अधर्म है।

संतान न होने पर समाधान

यदि पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है और उनकी कोई संतान न हो, तो यह सवाल उठता है कि कुल को नष्ट होने से कैसे बचाया जाए।

स्वामी जी ने जवाब दिया है कि ऐसी स्थिति में, पति और पत्नी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए या गोद लेकर वंश को आगे बढ़ाना चाहिए। यदि ब्रह्मचर्य का पालन न हो सके, तो नियोग द्वारा संतान उत्पन्न करनी चाहिए, लेकिन पुनर्विवाह कभी नहीं करना चाहिए।

‘नियोग’ प्रथा का वर्णन

लेख में ‘नियोग’ का अर्थ विस्तार से समझाया गया है:

  • यदि किसी पुरुष की पत्नी मर गई हो और कोई संतान न हो, तो वह एक नियुक्त विधवा स्त्री से संबंध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता है। गर्भधारण के बाद, उन दोनों का संबंध समाप्त हो जाएगा।
  • नियुक्त स्त्री दो-तीन साल तक बच्चे का पालन-पोषण करेगी और फिर उसे नियुक्त पुरुष को सौंप देगी।
  • इस तरह, एक विधवा स्त्री अपने लिए दो और अन्य चार पुरुषों के लिए, कुल मिलाकर 10 पुत्र उत्पन्न कर सकती है।
  • इसी प्रकार, एक विधुर भी अपने लिए दो और अन्य चार विधवाओं के लिए, कुल मिलाकर 10 पुत्र उत्पन्न कर सकता है।

वैदिक प्रमाण

लेख में ऋग्वेद 10-85-45 का हवाला दिया गया है, जिसका भावार्थ इस प्रथा का समर्थन करता है। इसमें कहा गया है कि:

“हे शक्तिशाली वर! तुम इस विवाहित या विधवा स्त्री को श्रेष्ठ पुत्र दो। इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न करो और ग्यारहवीं स्त्री को मानो। हे स्त्री! तुम भी विवाहित या नियुक्त पुरुषों से दस संतानें उत्पन्न करो और ग्यारहवें को पति समझो।”

यह भी बताया गया है कि दयानंद के अनुसार, वेद में आज्ञा है कि 10 से अधिक संतानें उत्पन्न नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अधिक संतानें निर्बल और अल्पायु होती हैं।

यह लेख यहीं पर समाप्त होता है और अगले भाग में इस विषय पर और भी विस्तृत चर्चा की जाएगी।

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