समाज विनाशक दयानन्द – सत्यार्थ प्रकाश की पोल-खोल- भाग-02


‘नियोग’ प्रथा: एक तथ्यपरक विश्लेषण

यह लेख महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वर्णित ‘नियोग’ प्रथा का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। यह प्रथा पुनर्विवाह के विकल्प के रूप में प्रस्तावित की गई थी। लेख ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के उद्धरणों और वैदिक ग्रंथों के मंत्रों का हवाला देते हुए इस प्रथा के सामाजिक, नैतिक और वैज्ञानिक पहलुओं पर सवाल उठाता है।


पुनर्विवाह पर दयानंद के विचार

‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चौथे समुल्लास में, महर्षि दयानंद ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में पुनर्विवाह का निषेध किया है। उन्होंने पुनर्विवाह के कई दोष बताए हैं:

  • विवाह की अस्थिरता: जब चाहे पुरुष और स्त्री एक-दूसरे को छोड़कर दूसरा विवाह कर सकते हैं।
  • पारिवारिक कलह: पति या पत्नी की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह करने पर पूर्व साथी के सामान को लेकर परिवार में झगड़ा होता है।
  • पतिव्रत/स्त्रीव्रत धर्म का नाश: पुनर्विवाह करने से पतिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है।
  • सामाजिक अन्याय: विधवा स्त्री का कुंवारे पुरुष से और विधुर पुरुष का कुंवारी कन्या से विवाह करना अन्याय और अधर्म है।

यदि कोई व्यक्ति संतानहीन हो, तो ऐसी स्थिति में दयानंद ने ब्रह्मचर्य या गोद लेने का सुझाव दिया है, लेकिन अगर यह संभव न हो तो ‘नियोग’ द्वारा संतान उत्पन्न करने की सलाह दी है, जिसे वे धर्म और न्यायसंगत मानते हैं।


नियोग क्या है?

लेख नियोग की परिभाषा इस प्रकार देता है:

नियोग एक ऐसी प्रथा है जिसमें यदि किसी पुरुष की पत्नी मर जाए और कोई संतान न हो, तो वह किसी नियुक्त विधवा स्त्री से यौन संबंध स्थापित कर संतान उत्पन्न कर सकता है। गर्भाधान सुनिश्चित होने के बाद, उनका संबंध समाप्त हो जाता है। इसी तरह, एक विधवा स्त्री भी 10 पुरुषों से नियोग द्वारा 10 पुत्र उत्पन्न कर सकती है (हालांकि कन्या उत्पन्न होने के नियमों का स्पष्टीकरण नहीं है)।

लेख में यह भी बताया गया है कि नियोग केवल विधवाओं और विधुरों के लिए ही नहीं है, बल्कि विवाहित लोगों के लिए भी है।

  • ऋग्वेद के मंत्रों का हवाला देते हुए, लेख बताता है कि यदि कोई पति नपुंसक है, या यदि पत्नी संतानोत्पत्ति में असमर्थ है, तो पति या पत्नी दूसरे व्यक्ति से नियोग कर सकते हैं।
  • सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार, यदि पति तीन, छह या आठ वर्षों के लिए विदेश में हो, तो पत्नी किसी अन्य पुरुष से नियोग कर सकती है।
  • यहाँ तक कि यदि पति-पत्नी के बीच संबंध मधुर न हों, या यदि पत्नी गर्भवती हो और पति से न रहा जाए, तो वे दोनों भी नियोग का सहारा ले सकते हैं, लेकिन वेश्यागमन या व्यभिचार नहीं करना चाहिए।

लेखक का आलोचनात्मक विश्लेषण

लेखक नियोग प्रथा की कड़ी आलोचना करता है और इसे हास्यास्पद, बचकाना और मूर्खतापूर्ण बताता है।

  • नैतिकता पर प्रश्न: लेखक पूछता है कि जहाँ पुनर्विवाह करने से पतिव्रत धर्म नष्ट हो जाता है, वहीं 10 गैर पुरुषों से यौन संबंध बनाने पर वह कैसे सुरक्षित रह सकता है?
  • वैज्ञानिक अज्ञानता: दयानंद ने कहा है कि यदि किसी स्त्री के बार-बार केवल कन्याएं ही उत्पन्न हों, तो पुरुष नियोग द्वारा पुत्र प्राप्त कर सकता है। लेखक इसे दयानंद की वैज्ञानिक अज्ञानता बताता है, क्योंकि जीव विज्ञान के अनुसार, लिंग का निर्धारण पुरुष द्वारा होता है, न कि स्त्री द्वारा।
  • सामाजिक वर्ग भेद: नियोग की यह व्यवस्था केवल द्विज वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के लिए है। शूद्रों को इससे बाहर रखा गया है, जो सामाजिक भेद-भाव को दर्शाता है।
  • अनैतिकता: लेखक नियोग को स्वच्छंद यौन संबंधों का एक रूप मानता है और कहता है कि यह किसी भी समाज के लिए निम्नतम कल्पना है।

ऐतिहासिक प्रमाण और विरोधाभास

लेख में महाभारत काल के कुछ उदाहरण दिए गए हैं, जहाँ व्यास ने नियोग द्वारा धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को जन्म दिया, और पांडु की पत्नियों कुंती और माद्री ने भी इसी विधि से संतानें उत्पन्न कीं।

  • विरोधाभास: लेखक पूछता है कि यदि नियोग इतना मान्य था, तो कुंती ने लोक लाज के डर से अपने पुत्र कर्ण को नदी में क्यों बहा दिया?
  • लेखक यह भी कहता है कि महाभारत काल में बहुविवाह भी प्रचलित था, जिसे दयानंद ने वर्जित बताया है।

इसके अलावा, लेखक यह भी पूछता है कि यदि दयानंद नियोग को इतना उचित मानते थे, तो उन्होंने स्वयं इसका पालन करके एक आदर्श क्यों स्थापित नहीं किया?


वेद भाष्यों में मतभेद

लेख में कुछ वैदिक मंत्रों का उल्लेख किया गया है, जिनका दयानंद ने नियोग के समर्थन में अर्थ निकाला है, जबकि अन्य विद्वानों ने उन्हीं मंत्रों से विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया है।

  • ऋग्वेद 10-85-45: दयानंद ने इस मंत्र का अर्थ नियोग से निकाला है।
  • ऋग्वेद 10-10-10: इस मंत्र का अर्थ भी उन्होंने नियोग से जोड़ा है।
  • ऋग्वेद 10-18-8: इस मंत्र से दयानंद ने नियोग का अर्थ निकाला है, जबकि अन्य विद्वान पुनर्विवाह का।
  • अथर्वसंहिता 9-5-27,28: यह मंत्र भी विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करता है।

लेखक इन मतभेदों को ‘वेद भाष्यों में इतना अधिक अर्थ भेद और मतभेद’ बताता है कि सत्य को पहचानना मुश्किल है।


निष्कर्ष

लेख यह निष्कर्ष निकालता है कि नियोग एक गंदी और गर्हित परंपरा है, जिसे किसी भी काल के लिए उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह विधवा स्त्री को एक वेश्या बना देता है और भारतीय चिंतन में नारी की दयनीय स्थिति को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि धार्मिक ग्रंथों में बाद में बदलाव किए गए हैं ताकि कुछ नैतिक बुराइयों को सही ठहराया जा सके।

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