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प्रलय की जानकारी
इस लेख में प्रलय और महाप्रलय के बारे में प्रमाणित और विस्तृत वर्णन किया गया है, और साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता के कई गहरे रहस्यों को भी उजागर किया गया है। इस छोटे से लेख में ही पूरे सार को लिखने का प्रयास किया गया है। यह लेख पूज्य गुरुदेव के अमृतमयी ज्ञान से लिया गया है। मैं तो गुरुदेव के दिव्य महाज्ञान के आगे एक अज्ञानी मात्र हूँ, उनका केवल एक तुच्छ दास हूँ। उन्हीं की प्रेरणा और शक्ति से मैं इतने बड़े लेख लिख पाने में सक्षम हुआ हूँ।
आइए, इस लेख को पढ़ें।
“प्रलय” का अर्थ है ‘विनाश’। यह दो प्रकार की होती है: आंशिक प्रलय और महाप्रलय।
आंशिक प्रलय
यह दो प्रकार की होती है:
1. कलियुग के अंत में आंशिक प्रलय
यह प्रलय कलियुग के अंत में होती है। उस समय पृथ्वी पर निःकलंक नामक दसवाँ अवतार आता है। वह उस समय के सभी भक्तिहीन मनुष्यों को अपनी तलवार से मार कर समाप्त कर देगा।
उस समय मनुष्य की उम्र 20 वर्ष होगी, जिसमें से 5 वर्ष कम हो जाएगी, यानी वे 15 वर्ष में ही बालक, जवान और वृद्ध होकर मर जाएँगे। पाँच साल की लड़कियाँ बच्चों को जन्म देंगी। मनुष्य का कद लगभग डेढ़ या ढाई फुट का होगा। उस समय इतने भूकंप आएँगे कि पृथ्वी पर चार फुट से ऊँचे भवन भी नहीं बनाए जा सकेंगे। सभी प्राणी धरती में बिल खोदकर रहा करेंगे।
पृथ्वी उपजाऊ नहीं रहेगी। तीन हाथ (लगभग साढ़े चार फुट) नीचे तक ज़मीन का उपजाऊ तत्व समाप्त हो जाएगा। कोई फलदार वृक्ष नहीं होगा और पीपल के पेड़ पर भी पत्ते नहीं लगेंगे। सभी मनुष्य (स्त्री-पुरुष) मांसाहारी होंगे। उनका आपसी व्यवहार बहुत घटिया होगा। वे रीछों की सवारी किया करेंगे, जो उस समय का एक अच्छा वाहन होगा। पर्यावरण दूषित होने से वर्षा होनी बंद हो जाएगी। केवल ओस की तरह ही वर्षा हुआ करेगी। गंगा-जमुना जैसी नदियाँ भी सूख जाएँगी। यह कलियुग का अंत होगा।
उस समय प्रलय (पृथ्वी पर केवल पानी ही पानी होगा) होगी। एकदम से इतनी वर्षा होगी कि सारी पृथ्वी पर सैकड़ों फुट पानी हो जाएगा। बहुत ऊँचे स्थानों पर कुछ मनुष्य बचे रहेंगे। यह पानी सैकड़ों वर्षों में सूखेगा। फिर सारी पृथ्वी पर जंगल उग जाएगा। पृथ्वी फिर से उपजाऊ हो जाएगी।
जंगलों की अधिकता से पर्यावरण फिर से शुद्ध हो जाएगा। कुछ भक्त व्यक्ति जो ऊँचे स्थानों पर बचे रह जाएँगे, उनकी संतान होगी। उनकी संतान बहुत ऊँचे कद की होगी। चूँकि वातावरण शुद्ध हो चुका होगा, उनका शरीर अधिक स्वस्थ हो जाएगा। इस प्रकार, यह सतयुग का आरंभ होगा। यह पृथ्वी पर ज्योति निरंजन (काल) द्वारा की जाने वाली एक आंशिक प्रलय है।
2. एक हज़ार चतुर्युग के बाद आंशिक प्रलय
दूसरी आंशिक प्रलय एक हजार चतुर्युग के बाद होती है, जब श्री ब्रह्मा जी का एक दिन समाप्त होता है। इतनी ही अवधि की रात्रि होती है। एक रात्रि तक प्रलय रहती है।
{वास्तव में, श्री ब्रह्मा जी का एक दिन 1008 चतुर्युग का होता है। एक ब्रह्मा जी के दिन में चौदह इंद्रों का शासन काल पूरा होता है। एक इंद्र का शासन काल 72 चौकड़ी युग का होता है।
एक चौकड़ी (चतुर्युगी) में चार युग होते हैं:
- सतयुग – 1,728,000 वर्ष
- त्रेता युग – 1,296,000 वर्ष
- द्वापर युग – 864,000 वर्ष
- कलियुग – 432,000 वर्षइन सभी को मिलाकर सीधा एक हज़ार चतुर्युग कहा जाता है।}
जब ब्रह्मा का दिन समाप्त होता है, तो पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग (इंद्र) लोक के सभी प्राणी नष्ट हो जाते हैं। प्रलय में नष्ट हुए प्राणियों को ब्रह्म (काल), जो ब्रह्म लोक में रहता है और किसी को व्यक्त रूप से दर्शन नहीं देता, जिसे अव्यक्त मान लिया गया है, उस अव्यक्त के लोक में अचेत करके गुप्त रूप से रख दिया जाता है।
फिर ब्रह्मा की एक हज़ार चतुर्युग की रात्रि समाप्त होने पर, इन तीनों लोकों (पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग लोक) में फिर से उत्पत्ति का कार्य शुरू हो जाता है। उस समय ब्रह्मा, विष्णु, शिव लोक के प्राणी और ब्रह्म लोक (महास्वर्ग) के प्राणी बचे रहते हैं। यह दूसरी प्रकार की आंशिक प्रलय हुई।
महाप्रलय
यह तीन प्रकार की होती है:
1. पहली महाप्रलय
यह प्रलय महाकल्प के अंत में होती है, जब ब्रह्मा जी की मृत्यु होती है।
{ब्रह्मा की रात्रि एक हजार चतुर्युग की होती है और इतना ही दिन भी होता है। 30 दिन-रात्रि का एक महीना, 12 महीनों का एक वर्ष और 100 वर्ष का एक ब्रह्मा का जीवन होता है। इसे एक महाकल्प कहते हैं।}
2. दूसरी महाप्रलय
जब सात ब्रह्मा जी की मृत्यु के बाद एक विष्णु जी की मृत्यु होती है, और सात विष्णु जी की मृत्यु के बाद एक शिव की मृत्यु होती है, तो इसे दिव्य महाकल्प कहते हैं। इस महाप्रलय में ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित इनके लोकों के प्राणी, तथा स्वर्ग लोक, पाताल लोक, मृत्यु लोक आदि में अन्य रचनाएँ और उनके प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल ब्रह्मलोक बचता है, जिसमें यह काल भगवान (ज्योति निरंजन) और दुर्गा, जो तीन रूपों – महाब्रह्मा-महासावित्री, महाविष्णु-महालक्ष्मी और महाशंकर-महादेवी (पार्वती) – में रहती हैं, तीन लोक बनाकर रहते हैं। इसी ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बना है, जिसमें चौथी मुक्ति प्राप्त प्राणी रहते हैं।
{मार्कण्डेय, रूमी ऋषि जैसी आत्माएँ, जिन्हें चौथी मुक्ति प्राप्त है और जिन्हें ब्रह्म लीन कहा जाता है, वे यहाँ के तीनों लोकों के साधकों की दिव्य दृष्टि की सीमा से बाहर होते हैं। स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोकों के ऋषि उन्हें देख नहीं पाते, इसलिए उन्हें ब्रह्म लीन मान लेते हैं। परंतु वे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में चले जाते हैं।}
फिर दिव्य महाकल्प के आरंभ में, काल (ज्योति निरंजन) भगवान ब्रह्म लोक से नीचे की सृष्टि फिर से रचता है।
काल भगवान अपनी प्रकृति (माया-आदि भवानी) महासावित्री, महालक्ष्मी और महादेवी (गौरी) के साथ संभोग करके अपने तीन पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) को उत्पन्न करता है। यह काल भगवान उन्हें अपनी शक्ति से अचेत अवस्था में कर देता है। फिर तीनों को अलग-अलग स्थानों पर रखता है: ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, विष्णु जी को समुद्र में शेषनाग की शैय्या पर और शिव जी को कैलाश पर्वत पर। वह तीनों को बारी-बारी सचेत कर देता है।
उन्हें प्रकृति (दुर्गा) के माध्यम से सागर मंथन का आदेश होता है। तब यह महामाया (मूल प्रकृति/शेरोंवाली) अपने तीन रूप बनाकर सागर में छिप जाती है। तीन लड़कियों (जवान देवियों) के रूप में प्रकट हो जाती है। तीनों बच्चे (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) इन्हीं तीनों देवियों से विवाह करते हैं। अपने तीनों पुत्रों को तीन विभाग – उत्पत्ति का कार्य ब्रह्मा जी को, स्थिति (पालन-पोषण) का कार्य विष्णु जी को और संहार (मारने) का कार्य शिव जी को देता है, जिससे काल (ब्रह्म) की सृष्टि फिर से शुरू हो जाती है।
इसका वर्णन पवित्र पुराणों में भी है, जैसे शिव महापुराण, ब्रह्म महापुराण, विष्णु महापुराण, महाभारत, सुख सागर और देवी भागवत महापुराण में विस्तृत रूप से किया गया है, और गीता जी के चौदहवें अध्याय के श्लोक 3 से 5 में संक्षेप में कहा गया है।
3. तीसरी महाप्रलय
एक ब्रह्मांड में जब 70,000 बार त्रिलोकीय शिव (काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु हो जाती है, तब एक ब्रह्मांड की प्रलय होती है। उस समय ब्रह्मलोक में तीन स्थानों पर रहने वाला काल (महाशिव) भी अपना महाशिव वाला शरीर त्याग देता है। इस प्रकार, यह एक ब्रह्मांड की प्रलय, यानी तीसरी महाप्रलय हुई, और उस समय एक ब्रह्मलोकीय शिव (काल) की मृत्यु हुई, और 70,000 त्रिलोकीय शिव (काल के पुत्र) की मृत्यु हुई। यानी एक ब्रह्मांड में बने ब्रह्म लोक सहित सभी लोकों के प्राणी विनाश में आते हैं। इस समय को परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक युग कहते हैं। इस प्रकार, गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का भावार्थ समझना चाहिए।
“इस प्रकार तीन दिव्य महाप्रलय होती हैं”:
- प्रथम दिव्य महाप्रलय: जब सौ (100) ब्रह्मलोकीय शिव (काल-ब्रह्म) की मृत्यु हो जाती है, तब चारों महाब्रह्मांडों में बने 20 ब्रह्मांडों के प्राणियों का विनाश हो जाता है। तब चारों महाब्रह्मांडों के शुभ कर्मों वाले प्राणियों (हंसात्माओं) को इक्कीसवें ब्रह्मांड में बने नकली सत्यलोक आदि लोकों में रख दिया जाता है और उसी लोक में बने अन्य चार गुप्त स्थानों पर अन्य प्राणियों को अचेत करके डाल दिया जाता है। तब उसी नकली सत्यलोक से प्राणियों को खाकर वह अपनी भूख मिटाता है और जो प्रतिदिन खाए हुए प्राणी हैं, उन्हें उसी इक्कीसवें ब्रह्मांड में बने चार गुप्त मुकामों में अचेत करके डालता रहता है। वहाँ पर भी ज्योति निरंजन अपने तीन रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु और महाशिव) धारण कर लेता है और वहाँ बने शिव रूप में अपनी जन्म-मृत्यु की लीला करता रहता है, जिससे समय निश्चित रहता है। वह सौ बार मृत्यु को प्राप्त होता है, जिस कारण परब्रह्म के सौ युग का समय इक्कीसवें ब्रह्मांड में पूरा हो जाता है। उसके बाद, चारों महाब्रह्मांडों के अंदर सृष्टि रचना का कार्य शुरू करता है।
{जिस एक सृष्टि में सौ ब्रह्मलोकीय शिव (काल) की आयु यानी परब्रह्म के सौ युग तक सृष्टि रहती है और इतनी ही समय प्रलय रहती है, यानी परब्रह्म के दो सौ युग (क्योंकि परब्रह्म के एक युग में एक ब्रह्मलोकीय शिव यानी काल की मृत्यु होती है) में एक दिव्य महाप्रलय जो काल द्वारा की जाती है, का क्रम पूरा होता है।}
- दूसरी दिव्य महाप्रलय: यह महाप्रलय पाँच बार होने के बाद द्वितीय दिव्य महाप्रलय होती है। दूसरी दिव्य महाप्रलय परब्रह्म (अविगत पुरुष/अक्षर पुरुष) करता है। उसमें काल यानी ब्रह्म (क्षर पुरुष) सहित सभी 21 ब्रह्मांडों का विनाश हो जाता है। जिसमें तीनों लोक (स्वर्गलोक-मृत्युलोक-पाताललोक), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व काल (ज्योति निरंजन-ओंकार निरंजन) तथा इनके लोकों (ब्रह्म लोक) यानी सभी 21 ब्रह्मांडों के प्राणी नष्ट हो जाते हैं।
विशेष: सात त्रिलोकीय ब्रह्मा की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकीय विष्णु जी की मृत्यु होती है, और सात विष्णु की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकीय शिव की मृत्यु होती है। 70,000 (सत्तर हजार) त्रिलोकीय शिव की मृत्यु के बाद एक ब्रह्मलोकीय शिव यानी काल (ब्रह्म) की मृत्यु परब्रह्म के एक युग के बाद होती है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है। तब प्रकृति (दुर्गा) सहित काल (ज्योति निरंजन) यानी ब्रह्म तथा इसके इक्कीस ब्रह्मांडों के प्राणी विनाश में आते हैं। तब परब्रह्म (दूसरे अव्यक्त) का एक हजार युग का दिन समाप्त होता है। इतनी ही रात्रि व्यतीत होने के बाद ब्रह्म को फिर पूर्ण ब्रह्म प्रकट करता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 17 का भाव ऐसे समझें।
परंतु ब्रह्मांडों और महाब्रह्मांडों और इनमें बने लोकों की सीमा (गोलाकार दीवार समझो) समाप्त नहीं होती। फिर इतने ही समय के बाद, यह काल और माया (प्रकृति देवी) को पूर्ण ब्रह्म (सत्यपुरुष) अपने द्वारा पूर्व निर्धारित सृष्टि कर्म के आधार पर पुनः उत्पन्न करता है और सभी प्राणी जो काल के कैदी (बंदी) हैं, को उनके कर्मों के आधार पर शरीरों में सृष्टि नियम से रचता है। ऐसा लगता है कि परब्रह्म रच रहा है।
{यहाँ पर गीता अध्याय 15 का श्लोक 17 याद रखना चाहिए जिसमें कहा है कि उत्तम प्रभु तो कोई और ही है जो वास्तव में अविनाशी ईश्वर है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी का धारण-पोषण करता है। और गीता अध्याय 18 के श्लोक 61 में कहा है कि अंतर्यामी ईश्वर सभी प्राणियों को यंत्र (मशीन) के सदृश कर्मों के आधार पर घुमाता है और प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।
गीता के पाठकों को फिर भ्रम होगा कि गीता अध्याय 15 के श्लोक 15 में काल (ब्रह्म) कहता है कि मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा सभी ज्ञान और वेदों को प्रदान करने वाला हूँ। हृदय कमल में काल भगवान महापार्वती (दुर्गा) सहित महाशिव रूप में रहता है, तथा पूर्ण परमात्मा भी जीवात्मा के साथ अभिन्न रूप से रहता है, जैसे वायु गंध के साथ रहती है। दोनों का अभिन्न संबंध है, परंतु कुछ गुणों का अंतर है। गीता अध्याय 2 के श्लोक 17 से 21 में भी विस्तृत विवरण है। इस प्रकार, पूर्ण ब्रह्म भी प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीवात्मा के साथ रहता है, जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसकी उष्णता और प्रकाश का प्रभाव प्रत्येक प्राणी से अभिन्न है। तथा जीवात्मा का स्थान भी हृदय ही है।
विशेष: एक महाब्रह्मांड का विनाश परब्रह्म के 100 वर्षों के बाद होता है। इतने ही वर्षों तक एक महाब्रह्मांड में प्रलय रहती है। काल यानी ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को ऐसा समझें जैसे गर्मियों के मौसम में राजस्थान-हरियाणा आदि क्षेत्रों में वायु का एक स्तंभ जैसा (मिट्टी युक्त वायु) आसमान में बहुत ऊँचे तक दिखाई देता है तथा चक्र लगाता हुआ चलता है, जो अस्थाई होता है। परंतु गंध तो वायु के साथ अभिन्न रूप में है। इसी प्रकार, जीवात्मा और परमात्मा का सूक्ष्म संबंध समझें।
ऐसे ही, सभी प्रलय और महाप्रलय के क्रम को पूर्ण परमात्मा (सत्यपुरुष, कविर्देव) से ही होना निश्चित समझें। एक हजार युग जो परब्रह्म की रात्रि है, उसके समाप्त होने पर काल (ज्योति निरंजन) की सृष्टि फिर से सत्यपुरुष कविर्देव की शब्द शक्ति से बनाए गए समय के विधान अनुसार शुरू होती है।
अक्षर पुरुष (परब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) के आदेश से काल (ज्योति निरंजन) और माया (प्रकृति यानी दुर्गा) को सभी प्राणियों सहित काल के इक्कीस ब्रह्मांडों में भेज देता है, और पूर्ण ब्रह्म के बनाए विधान अनुसार सभी ब्रह्मांडों में अन्य रचना प्रभु कबीर जी की कृपा से हो जाती है।
माया (प्रकृति) और काल (ज्योति निरंजन) के सूक्ष्म शरीर पर नूरी शरीर भी पूर्ण परमात्मा ही रचता है, और शेष उत्पत्ति ब्रह्म (काल) अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) के संयोग से करता है। शेष स्थान निरंजन पाँच तत्व के आधार से रचता है। फिर काल (ज्योति निरंजन यानी ब्रह्म) की सृष्टि शुरू होती है। इस प्रकार, यह परब्रह्म दूसरा अव्यक्त कहलाता है।}
- तीसरी दिव्य महाप्रलय: जैसा कि पूर्व वर्णित विवरण में पढ़ा कि सत्तर हजार काल (ब्रह्म) के शिव रूपी पात्रों की मृत्यु के बाद एक ब्रह्म (महाशिव) की मृत्यु होती है, वह समय परब्रह्म का एक युग होता है। इसी के विषय में गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 और 9, और अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहे हैं कि मेरी भी जन्म-मृत्यु होती है। मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, जिनको देवता लोग (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव सहित) और महर्षि जन भी नहीं जानते क्योंकि वे सभी मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं।
गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। परब्रह्म के एक युग में काल भगवान सदा शिव वाला शरीर त्यागता है और फिर अन्य ब्रह्मांड में अन्य तीन रूपों में विराजमान हो जाता है। यह लीला स्वयं करता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है और इतनी ही रात्रि होती है। 30 दिन-रात का एक महीना, बारह महीनों का एक वर्ष और सौ वर्ष की परब्रह्म (द्वितीय अव्यक्त) की आयु होती है। उस समय परब्रह्म की मृत्यु होती है। यह तीसरी दिव्य महाप्रलय कहलाती है।
तीसरी दिव्य महाप्रलय में सभी ब्रह्मांड और अंड, जिसमें ब्रह्म (काल) के इक्कीस ब्रह्मांड और परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मांड व अन्य असंख्य ब्रह्मांड शामिल हैं, नाश में आ जाएँगे। धूंधूकार का शंख बजेगा। सभी अंड और ब्रह्मांड नाश में आ जाएँगे, परंतु वह तीसरी दिव्य महाप्रलय बहुत समय बाद होगी।
वह तीसरी (दिव्य) महाप्रलय सतपुरुष का पुत्र अचिंत अपने पिता पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) की आज्ञा से सृष्टि कर्म नियम से, जो पूर्ण ब्रह्म ने निर्धारित किया हुआ है, करेगा और फिर सृष्टि रचना होगी। परंतु सतलोक में गए हंस दोबारा जन्म-मरण में नहीं आएँगे।
इस प्रकार, न तो अक्षर पुरुष (परब्रह्म) अमर है, न काल निरंजन (ब्रह्म) अमर है, और न ही ब्रह्मा (रजगुण), विष्णु (सतगुण) और शिव (तमगुण) अमर हैं। तो फिर इनके पुजारी (उपासक) कैसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? यानी, कभी नहीं। इसलिए, पूर्ण ब्रह्म की साधना करनी चाहिए, जिसकी उपासना से जीव सतलोक (अमरलोक) में चला जाता है। फिर वह कभी नहीं मरता और पूर्ण मुक्त हो जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म (कविर्देव) तीसरा सनातन अव्यक्त है, जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 के श्लोक 20, 21 में है।
उसी पूर्ण परमात्मा का प्रमाण गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 17 में, अध्याय 3 के श्लोक 14, 15 में, अध्याय 7 के श्लोक 13 और 19 में, अध्याय 8 के श्लोक 3, 4, 8, 9, 10, 20, 21 व 22 में, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तथा 22 से 24, 27 से 28, 30, 31 व 34 तथा अध्याय 4 श्लोक 31, 32 में, अध्याय 6 श्लोक 7, 19, 20, 25 से 27 में तथा अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62 में भी विशेष रूप से दिया गया है कि उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जाकर जीव फिर कभी जन्म-मरण में नहीं आता है।
{विशेष: यह काल कला समझने के लिए यह विवरण ध्यान रखें कि त्रिलोक में एक शिव जी है, जो इस काल का पुत्र है और जो 7 त्रिलोकीय विष्णु जी की मृत्यु और 49 त्रिलोकीय ब्रह्मा जी की मृत्यु के बाद मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसे ही, काल भगवान एक ब्रह्मांड में बने ब्रह्मलोक में महाशिव रूप में भी रहता है। परमेश्वर द्वारा बनाए गए समय के विधान अनुसार सृष्टि क्रम का समय बनाए रखने के लिए यह ब्रह्मलोक वाला महाशिव (काल) भी मृत्यु को प्राप्त होता है।
जब 70,000 त्रिलोकीय ब्रह्म (काल के पुत्र) शिव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, तब एक ब्रह्मलोकीय महाशिव/शिव (ब्रह्म/क्षर पुरुष) पूर्ण परमात्मा द्वारा बनाए गए समय के विधान अनुसार परवश होकर मरता और जन्मता है। यह ब्रह्मलोकीय शिव (ब्रह्म/काल) की मृत्यु का समय परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक युग होता है।
इसलिए, गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 12 से 27, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरे और तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। मेरे जन्म अलौकिक (अद्भुत) होते हैं।}
अद्भुत उदाहरण
आदरणीय गरीबदास साहेब जी का जन्म सन् 1717 (संवत् 1774) में श्री बलराम जी के घर पर माता रानी जी के गर्भ से हुआ था। वे 61 वर्ष तक गाँव छुड़ानी, जिला झज्जर में रहे और सन् 1778 (विक्रमी संवत् 1835) में शरीर त्याग गए। आज भी उनकी स्मृति में एक यादगार बनी है, जहाँ उनके शरीर को ज़मीन में सादर दबाया गया था। छह महीने के बाद, वैसा ही शरीर धारण करके आदरणीय गरीबदास साहेब जी 35 वर्ष तक अपने पूर्व शरीर के शिष्य श्री भक्त भूमड़ सैनी जी के पास सहारनपुर शहर (उत्तर प्रदेश) में रहे और फिर शरीर त्याग गए। वहाँ भी आज उनकी स्मृति में यादगार बनी है।
स्थान है: चिलकाना रोड से कलसिया रोड निकलता है। कलसिया रोड पर आधा किलोमीटर चलकर बाईं ओर यह अद्वितीय पवित्र यादगार विद्यमान है और उस पर एक शिलालेख भी लिखा है, जो प्रत्यक्ष साक्षी है। उसी के साथ में बाबा लालदास जी का बाड़ा भी बना है।