कड़वा सत्य द्रोपदी का चीर हरण


द्रोपदी का चीर हरण: एक कड़वा सत्य

महाभारत में एक कड़वा सत्य का प्रसंग आता है: द्रौपदी के चीर हरण का। उस समय भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धा दुर्योधन द्वारा विशेष रूप से सम्मानित होते थे। इसी कारण से, वे राजनीतिक दोष से ग्रस्त होकर अपने कर्तव्य को भूल गए थे।

पांडव अपनी मूर्खता के कारण इस राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार होकर विवश हो गए थे। उस सभा (पंचायत) में केवल एक ही धर्मनीतिज्ञ पंचायती थे, जिनका नाम विदुर जी था। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी बात रखी। आदरणीय गरीबदास जी की वाणी में:

“विदुर कह यह बन्धु थारा, एकै कुल एकै परिवारा।

दुर्योधन न जुल्म कमावै, क्षत्रिय अबला का रक्षक कहावै।

अपनी इज्जत आप उतारै, तेरी निन्द हो जग में सारै।

विदुर के मुख पर लगा थपेड़ा, तू तो है पाण्डवों का चेरा (चमचा)।

तू तो है बान्दी का जाया, भीष्म, द्रोण करण मुसकाया।”

विदुर की स्पष्टवादिता

इसका भावार्थ यह है कि उस पंचायत में केवल भक्त विदुर जी ही धर्मनीतिज्ञ पंचायती थे। उन्होंने निष्पक्ष होकर कहा, “हे दुर्योधन! कुछ तो विचार कर। यह तुम्हारे ही कुल की बहू है। इसे नंगा करके तुम अपनी ही बेइज्जती कर रहे हो। तुम अपने क्षत्रिय धर्म को भूल गए हो, जबकि क्षत्रिय तो स्त्री का रक्षक होता है।”

लेकिन अहंकारी और बुद्धि से भ्रष्ट दुर्योधन ने पंचायती की धर्मनीति को नहीं माना। उसने उल्टा अपने भाई दुशासन से कहा, “इस विदुर को थप्पड़ मार।” दुशासन ने ठीक वैसा ही किया और कहा, “तू तो हमेशा पांडवों के पक्ष में बोलता है, तू तो इनका चमचा है।” इस तरह, अहंकारी दुर्योधन ने राजनीतिक स्वार्थवश होकर अपने चाचा विदुर को भी थप्पड़ मारने की सलाह दे दी।

विदुर ने इस अपमान के बाद धर्मनीतिज्ञ पंचायती के रूप में सभा छोड़ दी। एक पंचायती का यही कर्तव्य होना चाहिए कि वह सत्य बोले और अगर उसकी बात नहीं मानी जाती, तो वह सभा छोड़कर चला जाए।

भीष्म, द्रोण और कर्ण का महादोष

लेकिन उस सभा में जब द्रौपदी को नंगा किया जा रहा था, तब भी भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण वहाँ मौजूद रहे। उनका उद्देश्य क्या था? यह स्पष्ट है कि उनमें एक महादोष था; वे भी स्त्री के गुप्त अंगों को देखने के इच्छुक थे।

सज्जनों! यदि इन तीनों में से कोई एक भी खड़ा होकर कह देता कि “खबरदार! अगर किसी ने स्त्री के चीर को हाथ लगाया,” तो किसी में भी उनसे टकराने की हिम्मत नहीं थी। भीष्म पितामह तो द्रौपदी के दादाजी थे, उनका पहला कर्तव्य था कि वे कहते, “दुर्योधन! द्रौपदी का चीर हरण मत कर, तुम भाई-भाई जो करना है, वह करो।” दूसरा, उन्हें अपराधी दुशासन को धमकाना चाहिए था कि “तूने अपने चाचा पर हाथ उठाया है, तो समझो अपने पिता पर हाथ उठाया है।”

लेकिन वे सब राजनीतिक स्वार्थ के कारण किसी ने भी अपना पंचायती धर्म नहीं निभाया। इसी कारण से, महाभारत के युद्ध में सभी की दुर्गति हुई। उस पूरी सभा में केवल विदुर ही सच्चे धर्मात्मा और अच्छे पंचायती थे।

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