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कथा नारद मुनि की
अहंकार और गुरु-विमुखता
एक समय नारद जी में अहंकार उत्पन्न हो गया। वे यह मानने लगे कि अब उन्हें बहुत ज्ञान हो गया है और वे मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं। नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा –
“महाराज! अब मैं माया के चक्कर में नहीं फँसूँगा।”
भगवान विष्णु ने सोचा –
“इसमें अभिमान आ गया है, इसे सबक सिखाना आवश्यक है।”
विष्णु जी की लीला
विष्णु जी ने कहा –
“नारद! चलो, एक जगह घूम आते हैं।”
नारद जी तैयार हो गए।
दोनों आगे बढ़े तो एक सुंदर नदी मिली। विष्णु जी ने कहा –
“नारद! तुम यहीं रुको, मैं पानी पीकर आता हूँ।”
नारद जी ने आग्रह किया –
“महाराज, मैं ही पानी ले आता हूँ।”
विष्णु जी बोले –
“लेकिन स्नान करके लाना।”
नारद जी ने नदी में छलांग लगाई।
मायाजाल में फँसना
जैसे ही वे बाहर निकले, वे एक सुंदर युवती बन गए।
अब न तो उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप याद रहा, न ही विष्णु भगवान दिखाई दिए।
उसी समय उस राज्य का राजा वहाँ आया। युवती को देख प्रभावित हुआ और उसे अपने महल ले जाकर विवाह कर लिया।
समय बीता, युवती से 72 संतानें हुईं। वह पटरानी बनकर राजमहल में रही। फिर बुढ़ापा आ गया, बाल सफेद हो गए।
युद्ध में राजा और 72 संतानें मारी गईं। दुखी होकर वृद्धा स्त्री पागल-सी हो गई और अंततः आत्महत्या करने के लिए उसी नदी में कूद पड़ी।
वास्तविकता का बोध
जैसे ही वह नदी से बाहर निकली, नारद जी अपने मूल रूप में खड़े थे और मुख से “नारायण-नारायण” उच्चारण कर रहे थे।
सामने भगवान विष्णु मुस्कराकर खड़े थे। उन्होंने कहा –
“नारद! बहुत देर लगा दी। मैं तो प्यास से व्याकुल हो गया था। पानी लाने में इतनी देर क्यों कर दी?”
नारद जी को पसीना आ गया। वे व्याकुल होकर बोले –
“हाय! मेरा बेटा मर गया, मेरे पोते मर गए! मेरा सबकुछ समाप्त हो गया।”
विष्णु जी ने हँसते हुए कहा –
“पानी लेने ही तो गए थे भगत जी!”
नारद जी समझ गए कि यह सब माया थी। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा –
“महाराज! मुझे नहीं पता था कि ऐसा हो जाएगा। कृपया मुझे क्षमा करें।”