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पवित्र वेदों अनुसार साधना का परिणाम केवल स्वर्ग–महास्वर्ग प्राप्ति, मुक्ति नहीं
बहुत से लोग यह मानते हैं कि वेद–विहित यज्ञ और देवताओं की पूजा करने से मोक्ष मिल जाता है। परंतु पवित्र वेदों और गीता में स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि यह साधना केवल स्वर्ग या महास्वर्ग तक ही सीमित है। वास्तविक मुक्ति केवल पूर्ण परमात्मा की शरण से ही संभव है।
गीता अध्याय 9 श्लोक 20–21 : वेद–अनुकूल साधना का परिणाम
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता अध्याय 9 श्लोक 20–21 में कहा है कि –
जो साधक मनोकामनाओं की सिद्धि के लिए तीनों वेदों में वर्णित साधना शास्त्रानुसार करते हैं, वे अपने पुण्यकर्मों के आधार पर स्वर्ग और महास्वर्ग तक पहुँचते हैं और वहाँ दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। परंतु उनका वह सुख स्थायी नहीं होता। जब पुण्य समाप्त होता है, तो वे पुनः जन्म–मरण के चक्र में गिर जाते हैं और चौरासी लाख योनियों का कष्ट भोगते हैं।
अर्थात् — वेद–विहित यज्ञ और साधना का परिणाम केवल सांसारिक भोग और स्वर्ग–महास्वर्ग की अस्थायी प्राप्ति है, मुक्ति नहीं।
गीता अध्याय 9 श्लोक 22 में भी स्पष्ट कहा है कि –
“जो निष्काम भाव से मेरी शास्त्र–अनुकूल पूजा करते हैं, उनकी साधना की रक्षा मैं स्वयं करता हूँ। परंतु उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं होती।”
शास्त्रविरुद्ध साधना – पतन का कारण
गीता अध्याय 9 श्लोक 23–24 में कहा गया है कि –
“जो भक्त अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी वास्तव में मेरी (काल की) पूजा ही कर रहे हैं। परंतु उनकी यह पूजा शास्त्रविरुद्ध (अविधिपूर्वक) है। इसलिए वे भक्त नरक और चौरासी लाख योनियों में गिरते हैं।”
यहाँ स्पष्ट है कि देवताओं की पूजा करना शास्त्रविरुद्ध है। क्योंकि समस्त यज्ञों का भोक्ता और स्वामी वास्तव में काल (ब्रह्म/क्षर पुरुष) है, न कि वे देवता जिन्हें हम पूजते हैं।
गीता अध्याय 3 श्लोक 14–15 : वास्तविक भोक्ता कौन?
गीता 3:14–15 में कहा गया है कि –
- यज्ञ से अन्न उत्पन्न होता है।
- अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं।
- और यज्ञ परमात्मा को समर्पित होता है।
यहाँ “सर्वगतं ब्रह्म” का अर्थ पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) से है, जो सर्व का नियंता है। परंतु जब तक जीव को पूर्ण संत नहीं मिलता, तब तक उसके सभी यज्ञ और साधना का फल काल (मन–रूप में) ही भोग लेता है।
इसीलिए गीता अध्याय 9 श्लोक 24 में कहा है —
“मैं (काल) ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ।”
निष्कर्ष
पवित्र वेदों और गीता के प्रमाण से स्पष्ट हुआ कि –
- वेद–विहित यज्ञ और देवताओं की पूजा का परिणाम केवल स्वर्ग–महास्वर्ग तक है, मुक्ति नहीं।
- देवताओं की पूजा शास्त्रविरुद्ध है और उसका परिणाम पतन है।
- जब तक साधक पूर्ण संत से तीन गुप्त मंत्र (ॐ, तत्, सत्) प्राप्त नहीं करता, तब तक वह काल के जाल से बाहर नहीं निकल सकता।
- केवल वही साधक सफल होता है जो पूर्ण परमात्मा की शास्त्रानुकूल भक्ति करता है।
इसलिए मुक्ति के इच्छुक साधकों को शास्त्रविहीन साधना और देवताओं की पूजा छोड़कर, पूर्ण संत से नामदीक्षा लेकर पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
।। सत साहेब ।।