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भक्ति की महिमा – भाव भक्ति ही है सच्चा मार्ग
गरीबदास जी महाराज का वचन
आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज कहते हैं –
“पूर्ण ब्रह्म रटै अविनाशी, जो भजन करे गोबिन्द रे,
भाव भक्ति जहाँ हृदय होई, फिर क्या कर है सूरपति इन्द रे।”
भावार्थ
जब साधक पूर्ण ब्रह्म की शरण लेकर सच्चे मन से गोबिन्द का भजन करता है, तो उसकी भक्ति में लोक-दिखावा नहीं होता।
यह भाव भक्ति कहलाती है – जब हृदय में विशेष तड़प, सच्ची कसक और प्रभु के प्रति सच्चा लगाव होता है।
ऐसी भक्ति के सामने देवताओं का राजा इन्द्र भी तुच्छ हो जाता है।
भाव भक्ति का वास्तविक स्वरूप
भक्ति का असली महत्व तभी है जब वह भीतर से उठे –
- जब आपके मन में परमात्मा के लिए सच्ची लगन हो।
- जब प्रभु की याद में एक उमंग, एक लहर भीतर से उठे।
- जब सांसारिक सुख, धन-दौलत और ऐश्वर्य सब फीके लगें और केवल मोक्ष, कल्याण और परमात्मा की कृपा की चाह रह जाए।
यही स्थिति भक्ति की चरम अवस्था है।
कबीर साहेब जी का संदेश
कबीर परमेश्वर जी स्वयं कहते हैं –
“साँईं यो मत जानियो, प्रीत घटे मम चित्।
मरूँ तो तुम सुमरत मरूँ, जिवित सूमरुँ नित्।।“
भावार्थ
कबीर साहेब जी कहते हैं कि –
- भक्ति को कभी मज़ाक या हल्के में न लो।
- प्रभु का नाम कभी सिर्फ औपचारिकता में मत लो, क्योंकि इससे हृदय से आस्था हट जाती है।
- कबीर जी का प्रण है कि – जीवन हो या मृत्यु, हर पल परमात्मा की याद और भजन में ही बिताना चाहिए।
निष्कर्ष
भक्ति तभी सफल होती है जब वह सच्चे भाव से की जाए।
- बिना दिखावे की भक्ति ही परमात्मा तक पहुँचाती है।
- भावुक, तड़प भरी और सच्चे समर्पण वाली भक्ति के आगे देवता भी छोटे पड़ जाते हैं।
- कबीर साहेब और संत गरीबदास जी महाराज दोनों यही स्पष्ट कर रहे हैं कि केवल वही आत्मा मुक्त होगी, जो भाव भक्ति करेगी और पूर्ण परमात्मा की शरण में जाएगी।