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राधास्वामी पंथ की असली जन्मकुंडली – सत्य उजागर
भारत में अनेक पंथ और सम्प्रदाय समय-समय पर उभरते रहे हैं। उनमें से एक है राधास्वामी पंथ, जिसकी नींव डाली थी शिवदयाल सिंह (जिन्हें उनके अनुयायी “स्वामीजी महाराज” कहते हैं)। यह ध्यान देने योग्य है कि “राधास्वामी” नाम शिवदयाल सिंह की पत्नी राधा के नाम पर रखा गया था।
परंतु सवाल यह उठता है कि इस पंथ का वास्तविक स्वरूप क्या रहा? क्या इसके प्रवर्तक और आगे आने वाले अनुयायी वास्तव में मोक्ष तक पहुँचे? या यह सम्पूर्ण परंपरा केवल शाखाओं और विवादों में उलझ कर रह गई?
इस लेख में हम राधास्वामी पंथ की पूरा वंशावली (जन्मपत्री) और उससे निकली सभी शाखाओं पर नज़र डालेंगे, साथ ही यह भी देखेंगे कि इनके संस्थापक शिवदयाल सिंह का अंत कैसा हुआ।
शिवदयाल सिंह – राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक
शिवदयाल सिंह (1818–1878) ने राधास्वामी पंथ की स्थापना की। उनके कोई गुरु नहीं थे। उन्होंने लगभग 17 वर्ष तक कोठरी में बंद होकर साधना की और बाद में “संत” के रूप में प्रकट हुए। कहा जाता है कि वे हुक्का भी पिया करते थे।
उनकी मृत्यु सन् 1878 में 60 वर्ष की आयु में हुई। मृत्यु के बाद उनकी आत्मा कथित रूप से उनकी शिष्या बुक्की में प्रवेश कर जाती थी। बुक्की उनकी तरह बोलती, हुक्का पीती, यहाँ तक कि उनके पैर का अंगूठा चूसने जैसी विचित्र हरकतें भी करती थी। इससे स्पष्ट है कि शिवदयाल सिंह का मोक्ष नहीं हुआ बल्कि वे प्रेतयोनि को प्राप्त हुए।
प्रमुख शिष्य और शाखाएँ
शिवदयाल सिंह के तीन प्रमुख शिष्य थे, जिनसे आगे कई धाराएँ निकलीं –
- जयमल सिंह – डेरा ब्यास
- जयगुरुदेव पंथ – मथुरा
- ताराचंद – दिनोद (भिवानी, हरियाणा)
इन्हीं से आगे अनेक पंथों की शुरुआत हुई।
1. डेरा ब्यास धारा
- जयमल सिंह → सावन सिंह → जगत सिंह → चरण सिंह
- सावन सिंह के शिष्यों में से दो प्रमुख बगावत कर अलग हो गए:
- खेमामल (शाह मस्ताना) → सिरसा में डेरा सच्चा सौदा (1949)
- कृपाल सिंह → दिल्ली में सावन-कृपाल मिशन
बाद में शाह मस्ताना के शिष्यों में भी बंटवारा हुआ और सतनाम सिंह तथा मनेजर साहिब के बीच सिरसा और जगमालवाली डेरों का गठन हुआ।
कृपाल सिंह के अनुयायी भी कई शाखाओं में बंट गए, जैसे – दर्शन सिंह, ठाकुर सिंह आदि।
2. आगरा दयालबाग धारा
- शिवदयाल सिंह → राय सालिगराम → शिवब्रत लाल → आगे कई शिष्य
- यही धारा आज दयालबाग (आगरा) के नाम से प्रसिद्ध है।
3. दिनोद धारा (भिवानी, हरियाणा)
- ताराचंद (दिनोद) → मास्टर कंवर सिंह → आगे गाँव अंटा, जिला जींद तक फैली शाखा
4. अन्य शाखाएँ
- बग्गा सिंह (तरणतारण) → देवा सिंह → कई छोटे डेरे (ध्यानपुर, बस्ती बिलोचा, फरीदकोट, लुधियाना आदि)।
- जयगुरुदेव पंथ (मथुरा) – तुलसीदास के माध्यम से आज भी अलग धारा।
डेरा सच्चा सौदा का इतिहास
- स्थापना: 2 अप्रैल 1949, शाह मस्ताना जी ने की।
- 1960 में शाह मस्ताना की मृत्यु इंजेक्शन रिएक्शन से हुई।
- उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ और दो शिष्यों में बंटवारा – सतनाम सिंह (सिरसा) और मनेजर साहिब (जगमालवाली)।
- बाद में यही धारा और अधिक शाखाओं में बंटती चली गई।
विश्लेषण – क्या हुआ मोक्ष?
- स्वयं शिवदयाल सिंह जी के पास कोई गुरु नहीं था।
- वे पाँच नाम (ररंकार, ओंकार, ज्योति निरंजन, सोहं, सतनाम) का जाप कराते थे, जो शास्त्रसम्मत नहीं है।
- उनकी मृत्यु के बाद बुक्की में आत्मा प्रवेश करना इस बात का प्रमाण है कि उन्हें मोक्ष नहीं मिला।
- बाद की सभी शाखाओं में भी केवल बँटवारे, गद्दी विवाद और परस्पर विरोध ही दिखाई देता है।
प्रश्न यह उठता है – जो प्रवर्तक ही अधोगति को प्राप्त हुआ हो, उसके अनुयायियों का उद्धार कैसे संभव है?
शास्त्रों का प्रमाण
भगवद गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा गया है कि तत्वदर्शी संत से ज्ञान लेकर सत्य साधना करने वाला साधक परम धाम को प्राप्त होता है, जहाँ से फिर लौटकर संसार में नहीं आता।
यदि किसी पंथ का संस्थापक ही बार-बार जन्म ले रहा है या प्रेतयोनि में भटक रहा है, तो यह स्पष्ट प्रमाण है कि उसकी साधना शास्त्रसम्मत नहीं है।
निष्कर्ष
राधास्वामी पंथ और उसकी सभी शाखाएँ – ब्यास, दयालबाग, मथुरा, सिरसा, जगमालवाली, सावन-कृपाल मिशन आदि – सबके सब केवल नाम और परंपरा में बंटते चले गए।
जिज्ञासु आत्माओं! यह सब काल (ज्योति निरंजन) का फैलाया हुआ जाल है। इससे बचकर ही वास्तविक मोक्ष संभव है।
पूर्ण संत ही जीव को कालबंधन से छुड़ाकर सतलोक ले जाते हैं। आज के समय में जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही वह पूर्ण संत हैं, जिनसे नामदीक्षा लेकर जीवन का कल्याण संभव है।