जानिये क्या देवी-देवताओं का राजा इन्द्र भी गधा बनता है ?


क्या स्वर्ग का राजा इन्द्र भी गधा बनता है? – जानिए असली रहस्य

भारत के प्राचीन ग्रंथों और संतों की वाणी में इन्द्र का नाम बार-बार आता है। स्वर्ग का राजा कहलाने वाला इन्द्र अपने पद और ऐश्वर्य के कारण लोगों के बीच अत्यंत प्रसिद्ध है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह इन्द्र भी अमर नहीं है? उसका शासनकाल सीमित है और जब उसका कार्यकाल पूरा हो जाता है तो वह भी जन्म-मरण के चक्र में फंसकर पुनः अन्य योनि में जन्म लेता है। आइए एक रोचक प्रसंग से समझते हैं।


इन्द्र की चिंता – कहीं मेरा सिंहासन न छिन जाए

मार्कण्डेय ऋषि वर्षों से ब्रह्म (काल) की साधना कर रहे थे। जब इन्द्र ने यह देखा तो वह घबरा गया। इन्द्र को डर था कि यदि मार्कण्डेय अधिक तप कर लेंगे तो उनका अर्जित पुण्य उन्हें इन्द्र पद पर बैठा देगा और वर्तमान इन्द्र को बीच में ही गद्दी छोड़नी पड़ेगी।

याद रखिए – इन्द्र का शासनकाल 72 चतुर्युगों तक का होता है। इस अवधि के दौरान यदि कोई साधक अधिक तप कर लेता है तो वर्तमान इन्द्र को हटाकर नए साधक को इन्द्र बना दिया जाता है। यही कारण है कि इन्द्र हमेशा साधकों का तप भंग करवाने के लिए विभिन्न उपाय करता है।


उर्वशी का प्रलोभन और ऋषि की दृढ़ता

इन्द्र ने मार्कण्डेय ऋषि की साधना भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को भेजा। उसने वातावरण को सुहावना बना दिया, नाच-गान किया और अंत में निर्वस्त्र हो गई। परंतु ऋषि की दृढ़ता डगमगाई नहीं।

उन्होंने कहा –
“हे बहन! हे बेटी! हे माई! तू यहाँ किसलिए आई है?”

इस पर उर्वशी ने हार मान ली और कहा कि यदि आप इन्द्रलोक नहीं चलोगे तो मुझे स्वर्ग में उपहास और दंड सहना पड़ेगा।

मार्कण्डेय ने उत्तर दिया कि जहाँ मैं साधना कर रहा हूँ वहाँ तेरे जैसी अप्सराओं की सात-सात दासियाँ केवल पाँव धोने के लिए होती हैं। फिर तेरी ओर क्यों देखूँ?


उर्वशी का रहस्योद्घाटन

जब ऋषि ने पूछा कि इन्द्र मरेगा तो तू क्या करेगी, तब उर्वशी ने कहा –
“मैं चौदह इन्द्र वरूँगी।”

अर्थात् उसकी आयु इतनी है कि चौदह इन्द्र उसके सामने जन्म लेकर पद भोग कर मर जाएँगे। लेकिन अंत में उसने यह भी स्वीकार किया कि जब-जब इन्द्र मरेगा, तब-तब वे गधे बनेंगे और मैं भी गधी बनूँगी।

यहाँ से स्पष्ट होता है कि स्वर्ग का ऐश्वर्य भी स्थायी नहीं है।


इन्द्र का स्वीकार – और भी सच्चाई

इसके बाद स्वयं इन्द्र आया और बोला – “हे मार्कण्डेय, आप जीत गए। आप चाहें तो इन्द्र की गद्दी संभाल लो।”

ऋषि ने उत्तर दिया –
“रे इन्द्र, तेरे इस क्षणिक राज्य का मुझे क्या करना? मैं तो ब्रह्मलोक की साधना कर रहा हूँ। वहाँ अनेकों इन्द्र मेरे चरण छू चुके हैं।”


असली शिक्षा – स्वर्ग नहीं, सतलोक चाहो

यह प्रसंग हमें यह सिखाता है कि इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, शिव – सभी का पदवी काल समाप्त होने पर छिन जाती है। ये देवता भी जन्म-मरण के बंधन से मुक्त नहीं हैं।

इसीलिए संत गरीबदास जी कहते हैं –

“एती उम्र बुलंद मरेगा अंत रे,
सतगुरु लगे न कान, न भेटैं संत रे।”

स्वर्ग का सुख कौवे की बीट के समान है यदि उसकी तुलना सतलोक से की जाए।


क्या करना चाहिए साधक को?

  1. इन्द्र के पद या स्वर्ग के सुख की चाह छोड़ो।
  2. शराब, मांस, तम्बाकू जैसे विकारों का त्याग करो।
  3. ब्रह्मा, विष्णु, शिव और ब्रह्म (काल) की साधना से ऊपर उठो।
  4. केवल उस पूर्ण परमात्मा की शरण लो जो सतलोक में विराजमान है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में भी कहा गया है –
“हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शांति और शाश्वत धाम को प्राप्त होगा।”


निष्कर्ष

इन्द्र लोक, ब्रह्म लोक या तीनों लोक – सब अस्थायी हैं। इनकी साधना से केवल क्षणिक पदवी और सुख मिलता है, परन्तु अंततः सबको जन्म-मरण में जाना पड़ता है।

सच्चा सुख और अमरत्व केवल पूर्ण परमात्मा की भक्ति से मिलता है। वही परमेश्वर कबीर साहेब हैं, जो साधक को सही नाम-दीक्षा देकर सतलोक पहुँचाते हैं।

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