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कबीर साहेब का विभीषण और मंदोदरी को शरण में लेना
त्रेतायुग में जब कबीर परमेश्वर मुनिन्द्र ऋषि के रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने अनेक भक्त आत्माओं को अपने तत्वज्ञान से जाग्रत किया। नल और नील को शरण में लेने के पश्चात् वे श्रीलंका पहुंचे।
चन्द्रविजय और कर्मवती का परिवार
लंका में एक पुण्यात्मा चन्द्रविजय अपने 16 सदस्यों के परिवार सहित रहता था। यह परिवार भाट जाति का था और परमेश्वर के उपदेश से प्रभावित होकर पूरा परिवार शरणागत हुआ। चन्द्रविजय दरबार में राजा रावण की सेवा करता था और उसकी पत्नी कर्मवती रानी मंदोदरी की सेविका थी।
कर्मवती पहले तो केवल हंसी-मजाक और मनोरंजन करती थी, परंतु जब उसने परमेश्वर से तत्वज्ञान प्राप्त किया तो रानी मंदोदरी को प्रतिदिन वही सतकथा सुनाने लगी। मंदोदरी धीरे-धीरे प्रभु चर्चा से प्रभावित हुई और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने कर्मवती से पूछा कि यह ज्ञान कहाँ से पाया? कर्मवती ने बताया – “हमने परम संत मुनिन्द्र साहेब से उपदेश लिया है।” तब मंदोदरी ने इच्छा जताई कि अगली बार वे आयें तो वह स्वयं उनके दर्शन करना चाहेंगी।
मंदोदरी और विभीषण को उपदेश
कुछ समय बाद जब मुनिन्द्र साहेब पुनः लंका आए तो मंदोदरी ने उनके चरणों में बैठकर दीक्षा प्राप्त की। इसके पश्चात् उसने अपने देवर विभीषण को भी परमेश्वर से नाम दीक्षा दिलाई। दोनों भक्ति में लीन हो गए।
मंदोदरी ने अपने पति रावण से भी कई बार प्रार्थना की कि वह कबीर परमेश्वर से दीक्षा ले, परंतु रावण अपनी जिद और अहंकार में डूबा रहा। वह कहता – “मैंने महादेव शिव की कठिन तपस्या करके वरदान पाया है, इससे बढ़कर कोई शक्ति नहीं।”
रावण का अहंकार और मंदोदरी की व्यथा
जब रावण ने साधु वेश धारण करके सीता का अपहरण किया, तब मंदोदरी अत्यंत दुखी हुई। उसने अपने गुरुदेव से प्रार्थना की – “हे प्रभु, मेरे पति ने एक पराई स्त्री का हरण किया है। कृपा करके इस अनर्थ को रोकें।”
मुनिन्द्र साहेब ने कहा – “बेटी, यह कोई साधारण स्त्री नहीं है। यह स्वयं लक्ष्मी जी हैं, जो श्रीराम (विष्णु अवतार) की पत्नी हैं। यदि रावण क्षमा मांगकर सीता को लौटा दे तो उसका कल्याण होगा।”
परंतु रावण अपने अहंकार में अंधा था। उसने मंदोदरी की बात भी अनसुनी कर दी और विभीषण को भी अपमानित किया।
कबीर साहेब और रावण का सामना
मंदोदरी ने एक बार अपने गुरुदेव से विनती की कि वे रावण को समझा दें। परमेश्वर मुनिन्द्र वेश में रावण के दरबार पहुंचे। द्वारपालों ने रोक दिया, परंतु वे अंतर्ध्यान होकर भीतर प्रकट हो गए। रावण गरजकर बोला – “इस ऋषि को बिना आज्ञा किसने अंदर आने दिया?”
कबीर साहेब ने कहा – “राजन! एक अबला का अपहरण वीरता नहीं कहलाती। सीता जी को लौटा दो। वह स्वयं लक्ष्मी हैं और श्रीराम स्वयं विष्णु हैं।”
रावण क्रोधित होकर तलवार से वार करने लगा। उसने लगभग सत्तर वार किए, लेकिन प्रभु के हाथ में एक साधारण-सी झाड़ू की सींक थी। सभी वार उसी सींक पर लगे और टस से मस नहीं हुए। रावण समझ गया कि यह कोई साधारण ऋषि नहीं, परंतु अहंकार के कारण नहीं माना।
कबीर साहेब मंदोदरी को सब बताकर अंतर्ध्यान हो गए। मंदोदरी ने कहा – “अब यदि मैं विधवा हो जाऊं तो भी दुख नहीं होगा, क्योंकि मैंने पूर्ण परमात्मा के दर्शन कर लिए।”
परिणाम – विभीषण का राज्य और रावण का विनाश
अंततः श्रीराम और रावण का युद्ध हुआ। रावण अपने अहंकार और तमोगुणी साधना के कारण विनाश को प्राप्त हुआ। जिस लंका का राज्य उसने कठोर तपस्या से पाया था, वही क्षण भर में समाप्त हो गया।
इसके विपरीत, विभीषण जिसने केवल सतगुरु मुनिन्द्र साहेब से तत्वज्ञान और सतनाम प्राप्त किया था, उसे लंका का राज्य सहज ही प्राप्त हुआ। हजारों वर्षों तक उसने प्रभु की कृपा से सुख और शांति के साथ राज्य किया। मंदोदरी और चन्द्रविजय का परिवार भी प्रभु की शरण में रहकर अंततः सतलोक गमन कर गया।
गीता प्रमाण
गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 में स्पष्ट कहा गया है कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भक्ति करने वाले वास्तव में राक्षस प्रवृत्ति वाले हैं क्योंकि उनका ज्ञान माया ने हर लिया है। और अध्याय 18 श्लोक 62 में भगवान स्वयं कहता है –
“हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उसकी कृपा से ही परम शांति और सनातन धाम को प्राप्त होगा।”
निष्कर्ष
- रावण ने अहंकार में आकर परमेश्वर को ठुकराया और नाश को प्राप्त हुआ।
- विभीषण और मंदोदरी ने परमेश्वर मुनिन्द्र (कबीर साहेब) से उपदेश लिया और सुख-शांति प्राप्त की।
- यही सत भक्ति है, जो जीव को सतलोक तक पहुंचाती है।