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ठीक है। मैंने आपके दिए हुए “पाण्डवों की यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंख बजाना” वाले लेख को ब्लॉग पोस्ट शैली में पूरा विस्तार और भाव रखते हुए पुनः लिखा है। इसमें कुछ भी छोटा नहीं किया गया है, बस प्रवाहमयी और पाठकों के लिए स्पष्ट बना दिया है।
पाण्डवों की यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंख बजाना
महाभारत का युद्ध जब समाप्त हुआ, तो अर्जुन और पाण्डवों के मन में भारी पीड़ा और पश्चाताप था। युद्ध में करोड़ों लोग मारे गए, असंख्य स्त्रियाँ विधवा हो गईं और बच्चे अनाथ हो गए। पाण्डव विजयी तो हो गए, लेकिन यह विजय उन्हें पाप और अपराधबोध से भरी लग रही थी।
अर्जुन तो युद्ध के प्रारंभ में ही शस्त्र त्याग कर बैठ गया था और रोते हुए भगवान श्रीकृष्ण से कहता है – “मैं यह महापाप नहीं करूँगा। भिक्षा का अन्न खाकर भी जीवन गुज़ार लेंगे, लेकिन अपने ही संबंधियों की हत्या करके राज्य नहीं चाहिए।”
तब श्रीकृष्ण के शरीर में प्रविष्ट काल शक्ति (ब्रह्म) ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित किया और गीता के अध्याय 2 और 11 में उसे पाप न लगने का आश्वासन दिया।
युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर को राज्य सिंहासन पर बैठाने का समय आया तो उन्होंने कहा –
“मैं ऐसे पापमय राज्य का भार नहीं उठाऊँगा, जिसमें लाखों स्त्रियाँ विधवा हो गई हैं और अनगिनत बच्चे अपने पिता की प्रतीक्षा में रो रहे हैं।”
श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया, लेकिन वे राजगद्दी पर बैठने के लिए तैयार न हुए। तब श्रीकृष्ण उन्हें भीष्म पितामह के पास ले गए, जो शरशैया पर लेटे हुए अंतिम समय गिन रहे थे। भीष्म ने भी युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति का उपदेश दिया, परंतु युधिष्ठिर टस से मस नहीं हुए।
अंततः श्रीकृष्ण ने कहा –
“आप एक धर्म यज्ञ करें। इससे आपके ऊपर लगे युद्ध के पाप धुल जाएंगे।”
युधिष्ठिर इस बात पर तैयार हो गए और यज्ञ का आयोजन हुआ।
सुपच सुदर्शन का आमंत्रण
यज्ञ में महात्मा-संतों को आमंत्रित करने की ज़िम्मेदारी भीम को दी गई। भीम एक गृहस्थ संत सुपच सुदर्शन (बाल्मीकि जाति से) के पास पहुँचे।
जब उन्होंने संत को यज्ञ में आने का निमंत्रण दिया, तो सुदर्शन संत ने कहा –
“हे भीम! तुम्हारा अन्न पापमय है। करोड़ों प्राणियों की हत्या करके राज्य लिया है। उनकी हाय और अनाथ बच्चों की रुलाई तुम्हें चैन नहीं लेने देगी। ऐसे पाप का अन्न संत ग्रहण नहीं कर सकते।”
उन्होंने आगे कहा –
“अगर मुझे बुलाना ही चाहते हो, तो पहले किए गए सौ (100) यज्ञों का फल मुझे दान करने का संकल्प करो, तभी मैं आऊँगा।”
भीम ने यह सुनकर कहा –
“हमने तो अभी दूसरा यज्ञ ही किया है। तुम्हें सौ यज्ञों का फल कैसे दे सकते हैं? इससे अच्छा है कि तुम मत आना। तुम्हारे बिना भी यज्ञ पूरा हो जाएगा।”
भीम का यह उत्तर सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा –
“संतों के साथ ऐसा अभद्र व्यवहार नहीं करना चाहिए। सतगुरु के भक्त का पार पाना असंभव है। उनके एक बाल के समान भी तीन लोक नहीं हैं। चलो, मैं स्वयं उस संत को लेकर आता हूँ।”
कबीर साहिब का आगमन सुदर्शन रूप में
श्रीकृष्ण और पाँचों पाण्डव उस संत के निवास स्थान की ओर रवाना हुए।
सुपच सुदर्शन को कबीर साहिब ने गुप्त प्रेरणा से किसी दूर स्थान पर भेज दिया और स्वयं सुदर्शन का रूप धारण कर उनकी झोपड़ी में बैठ गए।
जब पाण्डव और श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे तो सभी ने दण्डवत प्रणाम किया। श्रीकृष्ण ने कहा –
“हे महात्मा! पाण्डवों का यज्ञ आपके बिना पूर्ण नहीं हो रहा है। कृपया यज्ञशाला में पधारें।”
सुदर्शन रूप में विराजमान परमात्मा कबीर ने कहा –
“भीम जब मेरे पास आए थे तो मैंने अपनी विवशता उन्हें बता दी थी। पापमय अन्न को संत कैसे खा सकते हैं?”
तब श्रीकृष्ण ने बड़ी नम्रता से कहा –
“हे पूर्णब्रह्म! आज पाण्डव अपना अहंकार त्याग कर नंगे पाँव आपके द्वार पर आए हैं। भीम ने भी आपके चरणों में क्षमा माँगी है। कृपया हमारी लाज रखें और यज्ञ को पूर्ण करें।”
यज्ञशाला में भोजन और शंख का रहस्य
जब सुपच सुदर्शन (कबीर साहिब) यज्ञशाला पहुँचे तो वहाँ 56 भोग परोसे गए। द्रौपदी मन ही मन सोच रही थी – “यह साधारण गृहस्थ संत है, न जटा, न तिलक, न भेष, न आडम्बर। यह क्या शंख बजाएगा? और इतना स्वादिष्ट भोजन इसने जीवन में कभी नहीं देखा होगा।”
लेकिन संत ने उन सब पकवानों को मिलाकर खिचड़ी बना ली और पाँच ग्रास बनाए। जैसे ही उन्होंने वे पाँच ग्रास खाए, शंख ने पाँच बार आवाज की। उसके बाद शंख मौन हो गया।
यह देखकर द्रौपदी आश्चर्यचकित रह गई। उसने सोचा कि यह तो बिल्कुल साधारण व्यक्ति है, शंख अखण्ड क्यों नहीं बजा?
तब श्रीकृष्ण ने दिव्य दृष्टि से द्रौपदी के मन का भाव देख लिया और कहा –
“द्रौपदी, तुम्हारे मन में संत के प्रति दुर्भावना है। बिना आदर सत्कार किए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की सफलता नहीं होती। यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, स्वयं पूर्णब्रह्म हैं। इनके एक बाल के समान भी तीन लोक नहीं हैं। तुम्हारा मन शुद्ध नहीं था, इसलिए शंख अखण्ड नहीं बजा।”
चरणामृत और अखण्ड शंख
श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा –
“अपने पाप धोने हैं तो इनके चरणों को धोकर चरणामृत पीओ।”
द्रौपदी ने अपनी गलती स्वीकार की, संत से क्षमा माँगी और उनके चरणों को धोकर वह जल पी लिया। फिर आधा जल श्रीकृष्ण को भी पिलाया।
ज्यों ही यह हुआ, उसी क्षण शंख इतनी जोरदार ध्वनि से बजा कि स्वर्ग तक गूंज उठा और देर तक अखण्ड बजता रहा। तभी पाण्डवों का यज्ञ सफल हुआ।
गरीबदास जी महाराज ने भी इस घटना का वर्णन अपनी वाणी में किया है –
“गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सतगुरु पुरुष कबीर।
तीन लोक की मेदनी, सुर नर मुनिजन भीर।।
गरीब, करि द्रौपदी दिलमंजनां, सुपच चरण जी धोय।
बाजे शंख सर्व कला, रहे अवाजं गोय।।’’
शिक्षा
यह प्रसंग स्पष्ट करता है कि –
- सच्चे संत की महिमा का अनुमान बुद्धि और भेष से नहीं लगाया जा सकता।
- केवल सतभक्ति और संत की कृपा से ही यज्ञ और साधना सफल होती है।
- दिखावा और अहंकार भक्ति का नाश कर देते हैं।
- दीन भाव से संत के चरणों में जाने से ही मुक्ति संभव है।
यही कारण है कि कबीर परमेश्वर ने कहा है –
“संत मिलन को चालिए, तज माया अभिमान।
ज्यों-ज्यों पग आगे धरै, सो-सो यज्ञ समान।।’’