चौकाने वाला सच : देवताओ को पूजने वाले मुर्ख लोग होते है ।

अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) की पूजा बुद्धिहीन ही करते हैं

पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 15 से 23 तक में स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण जी (जिनमें उस समय काल-ब्रह्म प्रविष्ट थे) ने स्पष्ट कहा है कि जो साधक केवल त्रिगुण माया तक सीमित रहते हैं – यानी रजोगुण ब्रह्मा जी, सतोगुण विष्णु जी और तमोगुण शिव जी की पूजा करते हैं – वे बुद्धिहीन, अज्ञान के वशीभूत और क्षणिक सुख की लालसा वाले साधक हैं।


श्लोक 15 और 20 का संबंध

गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में कहा गया है कि –
त्रिगुण माया (रज, सत्व, तम) के जाल में फँसे हुए असुर स्वभाव धारण करने वाले, दुष्कर्म करने वाले, अज्ञानी व्यक्ति मुझे (काल) नहीं भजते। उनका ज्ञान त्रिगुणी माया हरा चुकी होती है।

इसी क्रम में श्लोक 20 में कहा गया है कि –
जिन साधकों का ज्ञान भोगों की कामना से हर लिया जाता है, वे अपने स्वभाववश अन्य देवताओं की पूजा करते हैं और अज्ञान अंधकार में नियमबद्ध रहते हुए उसी में फँसे रहते हैं।


श्लोक 21 और 22 की व्याख्या

अध्याय 7 श्लोक 21 में भगवान कहते हैं कि –
“जो भी भक्त जिस देवता की पूजा करना चाहता है, मैं (काल) उसकी श्रद्धा उसी देवता की ओर स्थिर कर देता हूँ।”

अर्थात्, साधक जिस देवता के पीछे लगना चाहता है, काल ही उसकी श्रद्धा उसी देवता में लगा देता है।

श्लोक 22 में कहा है कि –
“वह भक्त श्रद्धा से जिस देवता का पूजन करता है, तो उससे मिलने वाले भोग भी वास्तव में मेरे (काल के) द्वारा ही निश्चित होते हैं।”

जैसे किसी प्रदेश का मुख्य मन्त्री कहे कि नीचे के अधिकारियों को वही शक्ति मिली है जो उसने दी है। अधिकारी अपने स्तर पर कुछ लाभ दे सकते हैं, परन्तु असली शक्ति मन्त्री के पास है। उसी प्रकार देवताओं को जो भी शक्ति मिली है, वह काल के द्वारा सीमित अधिकार रूप में मिली है।


श्लोक 23 – देवताओं की पूजा का नाशवान फल

गीता 7:23 में कहा गया है कि –
“देवताओं की पूजा करने वाले साधक अंततः देवताओं को प्राप्त होते हैं। लेकिन वह फल नाशवान होता है। बुद्धिहीन लोग ही ऐसा करते हैं।”

स्पष्ट है कि देवताओं की पूजा से स्वर्ग और भोग तो मिल सकते हैं, परन्तु वे स्थायी नहीं होते।
भक्त पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाते हैं।


काल के जाल में साधना

श्लोक 20 से 23 तक का सार यह है कि –

  • जो भी साधना कोई साधक पितरों, भूत-प्रेतों, देवी-देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, शिव या माता दुर्गा की पूजा के रूप में करता है, वह काल के ही नियम के अधीन है।
  • काल ही उन भक्तों को देवताओं की ओर प्रेरित करता है।
  • देवताओं से मिलने वाला सुख काल द्वारा दी गई सीमित शक्ति से ही संभव है।
  • अंततः देवताओं की पूजा करने वाले उन्हीं देवताओं के लोक में जाते हैं और फिर चौरासी लाख योनियों में घूमते रहते हैं।

देवी-देवताओं की पूजा और मोक्ष का अंतर

देवी-देवताओं की पूजा से मिलने वाला लाभ –

  • क्षणिक सुख,
  • स्वर्ग या महास्वर्ग की प्राप्ति,
  • और पुण्यों का उपभोग समाप्त होते ही पुनः जन्म-मरण का चक्र।

भले ही कोई साधक एक महाकल्प तक स्वर्गलोक या ब्रह्मलोक में सुख भोग ले, परन्तु वहाँ से भी पतन निश्चित है। उसके बाद पुनः नरक, दुःख और जन्म-मरण के चक्र में भटकना ही भाग्य बनता है।

इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 20-23 का स्पष्ट भाव है कि देवताओं की पूजा करने वाले साधक काल-जाल से कभी मुक्त नहीं हो सकते।


निष्कर्ष

  • रजोगुण ब्रह्मा, सतोगुण विष्णु और तमोगुण शिव – ये तीनों देव नाशवान हैं।
  • इनकी पूजा से केवल अस्थायी सुख प्राप्त होता है।
  • गीता स्वयं कहती है कि ये साधक बुद्धिहीन हैं और मोक्ष कभी नहीं पा सकते।
  • पूर्ण मोक्ष केवल उस परमेश्वर से संभव है जो काल के जाल से परे है और जिसे गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा 15 श्लोक 16-17 में “परम अक्षर ब्रह्म” कहा गया है।
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