त्रेतायुग में मुनिन्द्र नाम से कविर्देव (कबीर साहेब) का प्राकट्य
यह लेख त्रेतायुग में मुनिन्द्र नाम से प्रकट हुए परमेश्वर कबीर (कविर्देव) की एक लीला का वर्णन करता है। इसमें बताया गया है कि कैसे उन्होंने नल और नील नामक दो भक्तों को असाध्य रोगों से मुक्त किया और उनकी भक्ति की परीक्षा ली, जिसका परिणाम रामसेतु के निर्माण के रूप में सामने आया।
नल और नील को शरण में लेना
त्रेतायुग में, कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने स्वयं प्रकट होकर मुनिन्द्र ऋषि का रूप धारण किया था। उस समय, अनल (नल) और अनील (नील) नामक दो व्यक्ति थे, जो मौसी के पुत्र थे। उनके माता-पिता का देहांत हो चुका था और वे शारीरिक व मानसिक रोगों से अत्यंत पीड़ित थे। कई ऋषियों और संतों से इलाज कराने के बाद भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली, और सभी ने उनके कष्टों को उनके पिछले जन्म के पाप कर्मों का दंड बताया।
एक दिन, दोनों को मुनिन्द्र नाम से प्रकट हुए पूर्ण परमात्मा का सत्संग सुनने का अवसर मिला। सत्संग के बाद जैसे ही उन्होंने मुनिन्द्र ऋषि के चरण छुए और मुनिन्द्र जी ने उनके सिर पर हाथ रखा, उनके सभी असाध्य रोग चमत्कारिक रूप से समाप्त हो गए और वे दोनों स्वस्थ हो गए।
इस अद्भुत घटना को देखकर, वे घंटों प्रभु के चरणों में रोते रहे और कहा कि उन्हें वह प्रभु मिल गया है, जिसकी उन्हें तलाश थी। उन्होंने मुनिन्द्र साहेब जी से नाम (दीक्षा) लिया और उनकी सेवा में रहने लगे।
नल और नील दोनों ही भोले और अत्यंत श्रद्धावान थे। वे समागमों में आने वाले भक्तों, विशेषकर बीमार, वृद्ध और विकलांग लोगों के कपड़े और बर्तन धोते थे। लेकिन वे इतने सीधे थे कि जब वे सत्संग में सुनी बातों पर चर्चा करने लगते, तो भक्ति में इतने लीन हो जाते कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि उनके हाथ से बर्तन और कपड़े नदी में गिरकर डूब गए हैं। भक्तजन उनसे अपनी सेवा बंद करने को कहते, लेकिन वे रोने लगते और कहते कि वे फिर से ऐसी गलती नहीं करेंगे।
भक्तों की शिकायत पर, मुनिन्द्र साहेब ने उन्हें समझाया, लेकिन वे फिर भी वही गलती दोहराते रहे। तब सतगुरु मुनिन्द्र साहेब ने उनसे कहा, “बेटा, आज के बाद तुम्हारे हाथ से कोई भी वस्तु, चाहे पत्थर हो या लोहा, पानी में नहीं डूबेगी।” मुनिन्द्र साहेब ने उन्हें यह आशीर्वाद दे दिया।
रामसेतु का निर्माण
आप सभी ने रामायण की कथा सुनी होगी। जब रावण माता सीता का हरण कर लंका ले गया, तो श्री राम ने शांतिदूत भेजकर सीता को लौटाने का अनुरोध किया, लेकिन रावण नहीं माना। तब युद्ध की तैयारी हुई। समुद्र को पार करने की समस्या सामने आई।
भगवान राम ने तीन दिनों तक घुटनों तक पानी में खड़े होकर समुद्र से रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन समुद्र टस से मस नहीं हुआ। तब राम ने उसे अग्निबाण से जलाना चाहा। भयभीत होकर समुद्र एक ब्राह्मण का रूप धारण कर सामने आया और कहा, “भगवन, सबकी अपनी मर्यादाएँ हैं। अगर आप मुझे जला भी देंगे, तो भी आप पार नहीं कर सकते, क्योंकि यहाँ और भी गहरा गड्ढा बन जाएगा।”
समुद्र ने कहा, “आप ऐसा काम करें कि सर्प भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। मेरी मर्यादा भी रह जाए और आपका पुल भी बन जाए।”
राम ने पूछा, “वह क्या विधि है?”
समुद्र ने बताया, “आपकी सेना में नल और नील नाम के दो सैनिक हैं। उनके पास उनके गुरुदेव से प्राप्त ऐसी शक्ति है कि उनके हाथ से पत्थर और लोहे की वस्तुएँ भी पानी पर तैर जाती हैं।“
श्री राम ने नल और नील को बुलाया और उनसे इस शक्ति के बारे में पूछा। नल और नील ने हाँ कहा, लेकिन उन्हें अभिमान हो गया कि आज वे सबके सामने अपनी महिमा दिखाएँगे। उन्होंने अपने गुरुदेव मुनिन्द्र (कबीर साहेब) को याद नहीं किया और पत्थर उठाकर पानी में डाला, तो वह डूब गया।
नल और नील की यह कोशिश असफल रही। तब समुद्र ने कहा, “नल-नील, आज तुमने अपने गुरुदेव को याद नहीं किया।“
वे दोनों अपनी गलती समझ गए और सतगुरु मुनिन्द्र साहेब जी को याद किया। मुनिन्द्र साहेब वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने राम से कहा कि अब इनके हाथ से पत्थर नहीं तैरेंगे, क्योंकि इन्हें अभिमान हो गया है।
गरीब, जैसे माता गर्भ को, राखे जतन बनाय।
ठेस लगे तो क्षीण होवे, तेरी ऐसे भक्ति जाय।
उस दिन के बाद नल और नील की वह शक्ति समाप्त हो गई।
श्री राम ने मुनिन्द्र साहेब जी से दया की याचना की। मुनिन्द्र साहेब ने कहा, “यह जो सामने पहाड़ है, मैंने उसके चारों तरफ एक रेखा खींच दी है। इसके बीच-बीच के पत्थर उठा लाओ, वे नहीं डूबेंगे।“
श्री राम ने परीक्षण किया और पत्थर पानी पर तैरने लगा। नल और नील ने पुल बनाना शुरू किया। हनुमान जी ने भी राम-राम लिखकर पत्थर डाले। इस तरह समुद्र पर पुल का निर्माण हुआ।
धर्मदास जी कहते हैं:
रहे नल नील जतन कर हार, तब सतगुरू से करी पुकार।
जा सत रेखा लिखी अपार, सिन्धु पर शिला तिराने वाले।
धन-धन सतगुरु सत कबीर, भक्त की पीर मिटाने वाले।
यह प्रमाणित होता है कि श्री राम को भी उस समय पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब की सहायता लेनी पड़ी थी।
कबीर साहेब की अमृतवाणी
इस लेख के अंत में, कबीर साहेब की कुछ वाणियाँ दी गई हैं, जो उनके सर्वोच्च स्थान को प्रमाणित करती हैं:
- “राम कृष्ण अवतार हैं, इनका नांही संसार। जिन साहेब संसार किया, सो किन्हूं न जन्म्या नार।।”
- “समुद्र पाट लंका गये, सीता को भरतार। ताहि अगस्त मुनि पीय गयो, इनमें को करतार।।”
- “जिन राम कृष्ण व निरंजन कियो, सो तो करता न्यार। अंधा ज्ञान न बूझई, कहै कबीर विचार।।”
इन वाणियों से सिद्ध होता है कि श्री राम और श्री कृष्ण स्वयं परमात्मा नहीं थे, बल्कि वे भी उसी एक परमपिता परमात्मा के अवतार थे, जिसने पूरे संसार की रचना की है।
